ना भूलना तुम : By Dr Raju Sharma, ex IAS

ना भूलना तुम

ना भूलना तुम, 2021 की पहली अप्रैल की सुबह,

या उसके पहले की कोई सुबह,

वसंत ऋतु की मंद ख़ुशबुएँ,

जब, एक नहीं, करोड़ों आंखें एक साथ खुलीं थीं।

और सबने अशुभ का कोई मंज़र देखा था!

मन में कुछ खौफ़ सा लगा था।

 

ना भूलना तुम, कि तुम्हारी खिड़की की चौखट पर

आकर बैठे थे तीन कौए, और तीन बार

की थी कांव कांव उन्होंने चेतावनी की,

विवेक और करुणा का परिचय दिया था।

 

ना भूलना तुम, कि वह मूर्ख प्रहसन का दिन नहीं था,

वह क़यामत के आग़ाज़ की सुबह थी।

कोरोना भयानक वेग से फैल रहा था।

जनमानस की कोशिकाओं में संक्रमण का भूचाल मचा था!

 

ना भूलना तुम, कि रहनुमा के हृदय में उस रोज़

लेशमात्र संशय नहीं था।

क्योंकि उसे सब कुछ पता था!

वह प्रभुता के अभियान में जुटा था।

वह किसी यशगान पर खिलखिलाकर हंसा था।

आश्चर्य कतई नहीं था।

सेंट्रल विस्टा के नवयुग में कौऔं का प्रवेश वर्जित था।

 

ना भूलना तुम

कि वैज्ञानिकों के यंत्रों ने अशुभ के सबूत पाये,

संक्रमण के नूतन प्रकार पाये,

उन्होंने एकतंत्र को जतलाना चाहा।

प्राचीन के गौरव-तंत्र ने एक सुनी,

जो हंसी उड़ी, वो जमकर उड़ी!

उन्हें स्पष्ट संकेत मिला,

तर्क-वितर्क अब बहुत हुआ,

वंदन का विज्ञान रचो,

जो नहीं पता तो शास्त्र पढ़ो!

वो भी नहीं, तो मुझे सुनो!

 

ना भूलना तुम,

कि अप्रैल का महीना क़हर का क्रूरतम महीन था,

उसने मई के महीने को भी निगल लिया!

क्रूरता का साम्राज्य रचा।

 

... ना भूलना तुम,

वह कांच की दैत्य-आँख, जिसकी स्याह पुतलियों के पीछे,

सैंकड़ों चिताएँ हर पल, हर दिन जल रही थीं,

जिनकी आग की लहक से दिन-रात, अंधेरे-उजाले के भेद मिट गए थे।

 

ना भूलना तुम,

कि तुम्हारे भीतर भी आकुल प्रतिद्रोह की लौ थी,

जो धधक रही थी, इंसाफ़ और हक़ की मांग कर रही थी।

 

ना भूलना तुम, हजारों फेफड़ों की मूक फ़रियाद,

उखड़ती, डूबती साँसों का सांस की भीख मांगना,

उन फेफड़े और साँसों से जुड़े प्राण,

जो समझ नहीं पाये, ऑक्सिजन की करें कैसे फ़रियाद?

क्या हाथ जोड़कर?

क्या पैर पकड़कर?

अल्लाह के नाम पर?

या भगवान के नाम पर?

तुमने आसमान देखा,

वहाँ निर्दयी तिमिर का वितान देखा।

 

ना भूलना तुम, वे कतारें,

शमशान के सामने अपने जलने की बाट जोहते शवों की कतारें,

अस्पताल के सामने हाँफते, मरणासन्न मरीजों की कतारें,

दवाई, ऑक्सिजन की तलाश की कतारें,

विलुप्त वैक्सीन की तलाश की कतारें,

घर लौटते मज़दूर, प्रवासी की कतारें,

अन्न के दो दाने झोली में भरने की कतारें!

विपदा की कतारें,

निराश्रित विवशता की कतारें,

अनर्गल असहनीय पीड़ा की कतारें!

 

ना भूलना तुम,

वह इंसान से इंसान का दयनीय लिपटना,

भाई का बहन से लिपटना,

भाई का भाई से, बहन का बहन से लिपटना

माँ का बेटे से, बाप का बेटी से लिपटना,

परिजन का परिजन से,

अजनबी का अजनबी से लिपटना,

धड़कनों का लिपटना, त्रास के साझे का लिपटना,

क्योंकि लिपटे बिना होता नहीं विलाप,

उनके लिए, जो अभी अभी थे, पर अब नहीं रहे!

 

ना भूलना तुम,

एक भी रुदन, क्रंदन,

वे विलाप, वह कोहराम,

वे मातम, वह मरसिया,

वे साँपा, वे शोकगीत,

वे श्लोक और स्वाहा का होम,

हर गाँव, शहर में, मानो जनाज़े का दिन।

 

ना भूलना तुम, नदी में बहती लाशें,

और रेत में गढ़े मुर्दे,

चीलों का मंडराना, और कुत्तों का भौंकना!

जों अभिशाप के नरक-दर्पण में नियत रोल अदा कर रहे थे!

 

ना भूलना तुम वे तारीख़ें-

 

2021 की 28 जनवरी,

जब जन-नायक ने विश्व-समुदाय के समक्ष डींग हाँकी,

कि कोरोना महामारी से उसने मानवता को बचा लिया है!

 

2021 की 22 फरवरी,

जब सत्ता-दल ने गर्व से प्रस्ताव पारित किया,

कि जन-नायक के दिव्य नेतृत्व ने कोरोना को चारों खाने चित्त किया है!

 

2021 की 7 मार्च,

जब स्वास्थ्य मंत्री ने कोरोना संकट को अंतिम अध्याय की पूंछ कहा था!

 

2021 की 17 अप्रैल,

जब पश्चिम बंगाल में लाखों जन के नक़ाब-विहीन चेहरे का परावलोकन करते हुए,

जन-नायक ने विजय और तृप्ति का हुंकारा भरा था!

 

ना भूलना तुम,

कि ना भूलने का अर्थ है,

निरंतर, अनवरत याद करना,

जो, बहुत के अलावा, चौकसी, रतजगा है,

जो जागरण, प्रदर्शन है, शब-बेदारी है,

जो ताप है, तप है, निगहबानी है,

जो प्रतिकार है, परिताप है,

विरोध है, कर्तव्य है

इंसानियत का अभ्यास है!

 

याद रखना तुम,

अपार वेदना की अनगिनत तस्वीरें,

लाखों जन की लाखों याचनाएं,

वे अंतिम वचन, वह अंतिम विलाप,

वह घना आश्चर्य कि, ये सब अन-होना था!

कैसे हो गया, ये तो नहीं होना था!

 

याद रखना तुम,

कि महाविपदा अगर दैवागत होती है,

तो मानव-रचित भी होती है।

कि त्रासदी अगर परिणाम है, तो उसके कारण भी हैं।

 

ना भूलना तुम, कि जो जानें गईं,

तीन लाख या बारह लाख,

वे बे-समय थीं,

यमराज के बहीखाते में

आखिर तक दर्ज नहीं थीं!

फिर ये कैसे हो गया,

कि महादेश की सांस उखड़ी,

वह माह भर में पसर गया!

वसंत ऋतु का क़त्ल हुआ

लगा कि भारत देश मर गया!

 

याद रखना तुम, वो पहले के फ़रेब,

साल दर साल के जुमले और छल के वेग,

वे प्रपंच, वे इंद्रजाल, वह अहंकार, वह विकार!

वे वादे, वे धमकियाँ, मुक़दमे और ज़ुल्म की बौछाड़,

वह घृणा, वह घृणा, वह हिंसा, वह हिंसा,

जो समय-असमय सड़क चलती थी,

घरों के दरवाज़े खटखटाती थी।

वह सीख, वह पाठ, वह विज्ञान की अवज्ञा,

वे भाषण, वे संकेत, वह कुटिल सी प्रज्ञा,

वे कागज़ के विकास रथ, असल लोहे की ज़ंजीरें,

सबके साथ के ढोंग, इस्पात की सलाख़ें,

सबके विश्वास के नाटक,

और चार्जशीट के सच!

 

ना भूलना तुम,

कि सात वर्ष के वक़्त की यही सुरंग,

खुली है गंगा के किनारे,

जहां लाशें तैर रही हैं,

रेत में जहां मुर्दे दफ़न हैं।

 

याद रखना तुम,

ये नरक का द्वार है,

और सबको वापिस लौटना है!

पर मुहाने पर है मौजूद,

इंसाफ़ और जवाबदेही का दरवाज़ा है,

जिसे सबको खोलना है।

बंद दरवाज़े को खुल जा सिमसिम कहना है!

 

याद रखना तुम,

खुल जा सिमसिम के तीन हैं सूत्र-वचन:

कि स्वत: प्रदत्त, स्वयंभू अधिकार होता है इंसाफ़,

कि सत्य की जीत होती है! सत्यमेव जयते!

कि जहां धर्म है, वहाँ विजय है! यतो धर्मस्ततो जय!

 

ना भूलना तुम, यह हक़ मांगना,

कि सत्य की जीत चाहिए,

कि धर्म की विजय चाहिए,

कि इंसाफ़ चाहिए, निवारण चाहिए,

कौन जवाबदेह है, निर्धारण चाहिए।


Dr Raju Sharma, ex IAS

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