Apoorvanand - जीत की राजनीति की जीत

आखिरकार इन्हीं लोगों ने, जो आज बाहर किए गए हैं, साल भर पहले इसी समिति की बैठक में मधु भादुड़ी को पहले तो बोलने से रोका और फिर जब वे किसी तरह मंच में पहुँचीं तो मिनट भर में उनके आगे से न सिर्फ माइक हटा लिया बल्कि  उन्हें जबरदस्ती मंच से उतार भी दिया था. वे बेचारी अकेली थीं और उनके प्रस्ताव में पार्टी-नेतृत्व को चुनौती भी नहीं दी गई थी! वे तो सिर्फ खिड़की गाँव में अफ्रीकी स्त्रियों के साथ सोमनाथ भारती के व्यवहार की आलोचना करना चाहती थीं. लेकिन उस समय इस आलोचना को भी नेतृत्व को चुनौती माना गया. यह पूरा मामला आया- गया भी हो गया.

आम आदमी पार्टी में  जो कुछ भी हुआ उससे वे ही हैरान हैं जो पार्टियों की अंदरूनी ज़िंदगी के बारे में कभी विचार नहीं करते. किसी भी पार्टी में कभी भी नेतृत्व के प्रस्ताव से अलग दूसरा प्रस्ताव शायद ही कबूल  होता हो .कम्युनिस्ट पार्टियों पर नेतृत्व की तानाशाही का आरोप लगता रहा है लेकिन कांग्रेस हो या कोई भी और पार्टी, नेतृत्व के खिलाफ खड़े होने की कीमत उस दल के सदस्यों को पता है. ऐसे अवसर दुर्लभ हैं जब नेतृत्व की इच्छा से स्वतंत्र या उसके विरुद्ध कोई प्रस्ताव स्वीकार किया गया हो. जब ऐसा होता है तो नेतृत्व के बदलने की शुरुआत हो जाती है.
भारत में पार्टियों के आतंरिक जीवन का अध्ययन नहीं के बराबर हुआ है.ऐसा क्यों नहीं होता  कि निर्णयकारी समितियों के सदस्य खुलकर, आज़ादी और हिम्मत के साथ अपनी बात कह सकें? यह अनुभव उन सबका है जो पार्टियों में भिन्न मत रखते ही ‘डिसिडेंट’ घोषित कर दिए जाते हैं.यह भी समिति की बैठक के दौरान जो उनके खिलाफ वोट दे चुके हैं वे अक्सर बाहर आकर कहते हैं कि आप तो ठीक ही कह रहे थे लेकिन हम क्या करते!  हमारी मजबूरी तो आप समझते ही हैं !
ये राजनीतिक दल कोई सोवियत संघ या चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों की तरह के दल नहीं हैं और न उस राजनीतिक आबोहवा में काम करते हैं जो एक ही प्रकार के मत से बनी है. ये तो एक खुले जनतांत्रिक राजनीतिक माहौल के आदी हैं जो इसका मौक़ा देता है कि इंदिरा गांधी तक को भी सत्ताच्युत कर दिया जा सके.फिर ये सब के सब क्यों अपने भीतरी व्यवहार में अजनतांत्रिक होते हैं?
नेतृत्व से यह उम्मीद करना कि वह अपने से भिन्न या विरोधी मत को उदारतापूर्वक स्वीकार कर लेगा, कुछ ज्यादती है. ऐसा करते ही उसकी निर्णय क्षमता पर सवालिया निशान लग जाता है. उसे लेकर ऐसा संदेह पैदा होते ही यह सवाल पैदा हो जाता है कि वह क्योंकर पार्टी का नेता बना रहे! लेकिन जो उच्चतम समितियों के सदस्य होते हैं क्यों वे यह मानते हुए भी कि नेतृत्व सही नहीं, बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते?
आम आदमी पार्टी में कल लोकतंत्र की ह्त्या हुई,ऐसा आरोप बाहर कर दिए गए लोगों ने लगाया.लेकिन ‘लोकतंत्र’ की उनकी दुहाई की साख उन्हीं के दल के लोगों के बीच क्यों न थी? इसलिए कि उन्हें यह पता था कि मसला ‘लोकतंत्र’ का नहीं है.आखिरकार इन्हीं लोगों ने, जो आज बाहर किए गए हैं, साल भर पहले इसी समिति की बैठक में मधु भादुड़ी को पहले तो बोलने से रोका और फिर जब वे किसी तरह मंच में पहुँचीं तो मिनट भर में उनके आगे से न सिर्फ माइक हटा लिया बल्कि  उन्हें जबरदस्ती मंच से उतार भी दिया था.वे बेचारी अकेली थीं और उनके प्रस्ताव में पार्टी-नेतृत्व को चुनौती भी नहीं दी गई थी! वे तो सिर्फ खिड़की गाँव में अफ्रीकी स्त्रियों के साथ सोमनाथ भारती के व्यवहार की आलोचना करना चाहती थीं. लेकिन उस समय इस आलोचना को भी नेतृत्व को चुनौती माना गया. यह पूरा मामला आया- गया भी हो गया.
यह समझ लेने से कि आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय परिषद के सदस्यों के लिए जनतंत्र विचारणीय ही नहीं था, यह समझना आसान होगा कि क्यों कल के ‘सही’ पक्ष में उनका अल्पमत ही खड़ा हो सका. पार्टी के इन सदस्यों के सामने प्रश्न था सत्ता को बनाए रखने के समीकरण को अविचलित रहने देना. उनके सर्वोच्च नेता ने यही सवाल आक्रामक तरीके से उनके सामने रख दिया. और उन्हें यह मालूम है कि उसके बिना अभी सत्ता उनके पास न होगी.
राष्ट्रीय परिषद के इन सदस्यों के इस आचरण को फिर भी समझा जा सकता है. इनमें से बहुत कम का किसी राजनीतिक संगठन में काम करने का तजुर्बा है.यहाँ तक की सामाजिक आन्दोलनों का अनुभव भी क्षीण ही है.वे स्वयं किसी जनतांत्रिक प्रक्रिया से यहाँ नहीं पहुंचे हैं.उन्हें जनतांत्रिक विचार-विमर्श की कोई आदत भी नहीं पड़ी है. वे सिर्फ यह जानते हैं कि जो किसी भी तरह जीत दिलाए उसे ही नेता मानना फायदेमंद है. इसी मनोविज्ञान को समझ कर कल उनके सर्वोच्च नेता ने उनसे कहा कि उन्हें जीत की राजनीति करने वालों और हार की राजनीति करने वालों में चुनाव करना है.फैसला जाना हुआ था.
असल में आम आदमी पार्टी के जो सदस्य हैं, उनके लिए विचार जैसा कोई भी शब्द उतना ही पराया है जितना नैतिकता. आखिर जो इतना माहिर है कि रामदेव, श्री श्री रविशंकर, किरण बेदी के सहारे भीड़ इकठ्ठा कर नेता बन सकता है और बाद में अन्ना हजारे से मनचाहा ‘उपवास’ करवा के एक जन-उन्माद पैदा कर ले, और फिर उसे ही किनारे कर दे,वह कुछ भी कर कर सकता है! आखिरकार उसके इसी हुनर को देखकर उन लोगों ने भी उसे अपना नेता चुना था जिन्हें आज वह अपनी ‘जीत की राजनीति’ के रास्ते में रोड़ा मान रहा है! फिर जो कुछ भी उनके साथ हुआ वह तो इस राजनीति के लिए तर्कसंगत ही था.
http://kafila.org/2015/03/31/%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%A4-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%A4/#more-25112

Popular posts from this blog

Haruki Murakami: On seeing the 100% perfect girl one beautiful April morning

Albert Camus's lecture 'The Human Crisis', New York, March 1946. 'No cause justifies the murder of innocents'

The Almond Trees by Albert Camus (1940)

James Gilligan on Shame, Guilt and Violence

Etel Adnan - To Be In A Time Of War

After the Truth Shower

The Republic of Silence – Jean-Paul Sartre on The Aftermath of War and Occupation (September 1944)