कुमार प्रशांत - तो राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने एक बार फिर गांधी से दो-दो हाथ करने का मन बनाया है // Bharat Bhushan: BJP icon SP Mookerjee complicit in raising funds for defending Gandhi's assassins
जेल से छूटने के बाद गोपाल गोडसे ने पूरी
न्याय-प्रणाली को करारा चांटा मारा जब उसने
अपनी जीवनी में लिखा कि
मैंने और
नाथूराम ने
कभी भी
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की सदस्यता नहीं छोड़ी लेकिन हमें यह गलतबयानी करनी पड़ी क्योंकि हम पर इस
बात का
बहुत दवाब
था कि
हमें राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और
सावरकर को
हर हाल
में बेदाग रखना है। नाथूराम और उनके भाई गोपाल गोडसे ने अदालत में एक ही टेक रखी कि उनका राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ के साथ कोई नाता नहीं था। इस असत्य की काट का कोई ऐसा ‘प्रमाण’ नहीं मिला अदालत को, जिसके आधार पर वह संगठन को भी अपराधी बताती। इससे यह साबित नहीं होता है कि संगठन अपराध में शामिल नहीं था बल्कि यह साबित होता है कि अदालती सच और सच के बीच गहरी खाई हो सकती है; और जो अदालत इस खाई को पाट न सके, वह न्याय का अधूरा ही दर्शन कर व करा पाती है।
महात्मा गांधी और
अदालत
० कुमार प्रशांत
महात्मा गांधी और अदालत का रिश्ता बहुत पुराना और बहुत लोमहर्षक है। गांधी ने जीवन-यापन के लिए यही अदालती पेशा चुना था और सम्मान भरे जीवन की लड़ाई में इसी अदालत को हथियार की तरह इस्तेमाल किया था। इसलिए आश्चर्य नहीं है कि आज फिर गांधी को अदालत ने अपने कठघरे में बुलाया है। बहाना बने हैं राहुल गांधी ! और उन्हें बहाना बनाया है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भिवंडी शाखा के सचिव
राजेश कुंटे ने; लेकिन आरएसएस जैसे संगठनों की कार्यप्रणाली से जो लोग परिचित हैं वे जानते हैं कि यहां सारे फैसले किसी बड़ी रणनीति के तहत, किसी एक ही जगह से तै किए जाते हैं, भले ही वे हमारे सामने बरास्ते राजेश कुंटे आएं।
तो हम इसे इस तरह कहें तो बात गलत नहीं होगी कि राष्ट्रीय
स्वंयसेवक संघ ने एक बार फिर गांधी से दो-दो हाथ करने का मन बनाया है और इस बार उसका आत्मविश्वास उफान पर है, क्योंकि आज सत्ता उसके पास भी है, साथ भी है।
सवाल वही है -पुराना; कि महात्मा गांधी की हत्या किसने की ?
हिंदुत्ववादियों को या कहूं कि संघ परिवार को अगर इसका थोड़ा भी इल्म होता कि इस आदमी की हत्या, विक्रमादित्य के कंधे पर लदे बेताल की तरह उससे चिपक जाएगी और लाख कोशिशें कर के भी वे उससे छूट नहीं पाएंगे तो शायद वे इस दिशा में नहीं जाते। हुआ ऐसा कि ३० जनवरी १९४८ को महात्मा गांधी को मारी गई तीनों गोलियां उलट पड़ी हैं और तब से ही अपना निशाना खोज रही हैं। गांधी न उगलते बनते हैं, न निगलते !
सर्वोच्च न्यायालय ने
नाहक ही
इस फटे
में अपना
पांव डाला
है, क्योंकि गांधी नाम के इस
आदमी ने
एकाधिक बार
अदालतों को
इस तरह
आईना दिखलाया है कि इसकी
सूरत ही
नहीं, सीरत भी
गहरे सवालों से घिर गई
है।
इतिहास कहता है कि गांधी की हत्या किसी क्षणिक आवेश में की गई दुर्भाग्यपूर्ण काररवाई नहीं थी बल्कि लंबे दौर में सोच-समझ कर रचा गया वह षड्यंत्र था जो पांच असफल प्रयासों के बाद जा कर सफल हो पाया था। इसमें से एक भी प्रयास नहीं था जो हिंदुत्व की विचारधारा से न जुड़े किसी व्यक्ति या संगठन द्वारा किया गया हो।
महात्मा गांधी ने अपने जीवन में तीन तरह की हिंसाओं का मुकाबला किया – साम्राज्यवादी हिंसा जिसके दांत उन्होंने इस कदर खट्टे कर दिए थे कि वह समझ नहीं पा रहा था कि आत्मबलिदानियों की इस ताकत को वह कैसे काटे ! दूसरी हिंसा वह थी जो व्यापक जनक्रांति के नाम पर छुप-छुप कर, जहां-तहां पटाखे फोड़ती थी।
गांधी ने इस हिंसा की व्यर्थता साबित कर दी थी और यह भी बता दिया था कि इसके गर्भ में से अंधा आतंकवाद पैदा होगा। आज सारी दुनिया जिस उद्देश्यविहीन हिंसा की चपेट में है, वह वहीं से पैदा हुई है, इसे समझने के लिए किसी गहन ज्ञान की जरूरत नहीं है।
तीसरी हिंसा वह
थी जिसने गांधी को लील
लिया – सांप्रदायिक हिंसा !
सांप्रदायिक हिंसा का हथियार दोनों इस्तेमाल करते हैं – बहुसंख्यक
भी और अल्पसंख्यक भी ! गांधी इन दोनों हिंसाओं से जूझते रहे और अंतत: मारे गये। वे बहुसंख्यक की हिंसा को ज्यादा खतरनाक बताते रहे, क्योंकि बहुसंख्यक
की हिंसा बड़ी आसानी से देशभक्ति करार दी जाती है।
गांधी का यह
पक्का विश्वास है कि हिंसा स्वभाव से ही
मानवद्रोही होती
है और
इसलिए देशद्रोही भी होती है।
इसलिए बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों तरह की सांप्रदायिक ताकतों ने यही मान कर गांधी को मारने की बात तै की कि इस आदमी को और इसके बढ़ते प्रभाव को सामान्य तरीके से रोका नहीं जा सकता है; और इसे रोका नहीं गया तो हमारी अपनी जड़ों की सुरक्षा संभव नहीं होगी।
मुझे नहीं लगता है कि इतिहास का कोई सामान्य विद्यार्थी भी, जिसमें हमारी अदालतों में बैठे जज और वकील साहबान भी शामिल हैं, हत्या के इस विश्लेषण से असहमत होंगे; हत्या जायज थी कि नहीं, इस पर भले हमारे मतभेद हों। अदालत ने हत्या के अपराध में भले ही नाथूराम गोडसे को फांसी की सजा दी लेकिन वृहत्तर भारतीय समाज ने तो अपनी चेतना में हमेशा-हमेशा के लिए यह दर्ज कर लिया कि इस धरती से निकली गंगा-जमुनी संस्कृति और पश्चिमी जीवन-दर्शन के तमाम मंगलकारी तत्वों की मिलावट से पैदा हुआ हमारी सदी का यह सबसे बड़ा आदमी हमारी सांप्रदायिक क्षुद्रता
के हाथों मारा गया। वह खलिश और वह पहचान आज भी, प्रभु कृष्ण के पांव में लगे जरा के जहरीले वाणों की तरह ही हमारे मन-प्राणों में बिंधा है। अदालत ने तो तब इस मुहर भर लगाई थी।
राहुल गांधी की बात यहीं से शुरू होती है।
सभी जानते हैं कि राहुल गांधी सत्ता की राजनीति के खिलाड़ी हैं। दुर्भाग्यवश
चलन ऐसा बना है कि इस खेल में न कोई हथियार वर्जित है, न कोई काल बाध्यता मानी जाती है। यहां तो वही वाण सबसे मुफीद माना जाता है जो सबसे गहरा घाव देता हो। तो राहुल गांधी को लगा हो कि गांधी की हत्या का वाण सांप्रदायिक
ताकतों को मर्मांतक पीड़ा पहुंचाएगा तो इसमें आश्चर्य नहीं।
आश्चर्य अगर है
तो इस
बात का
है कि
देश की
राजनीति में
उतरे इन
राहुलों को
इस बात
का अहसास क्यों नहीं है
कि उन
सबने जैसी
राजनीति चलाई
है उसमें सबसे पहली हत्या तो नैतिक मूल्यों की ही हुई
है। सामाजिक नैतिकता की कब्र पर खड़े हो कर, नैतिकता के सवाल उठाने से ज्यादा बड़ा विद्रूप क्या हो सकता है !
लेकिन अभी मैं इस सवाल को नहीं उठा कर अदालत से सिर्फ इतना जानना चाहता हूं कि राहुल गांधी ने ऐसी क्या बेजा बात कही कि अदालत ने उन्हें कठघरे में खड़ा करने की धमकी दे डाली ?
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ
१९२५ में
अपने जन्म
से आज
तक हिंदुत्व की वर्चस्ववादी विचारधारा का सबसे बड़ा
और सबसे
संगठित पैरोकार रहा है।
देश के राजनीतिक-सामाजिक जीवन में सांप्रदायिकता का बीजारोपण और उसके प्रभुत्व का संरक्षण करने का इतिहास जब भी लिखा जाएगा, राष्ट्रीय
स्वंयसेवक संघ का नाम उसमें जरूर आएगा। यह पूरी अवधारणा महात्मा गांधी की सामाजिक अवधारणा के विरोध में न केवल खड़ी होती है बल्कि उसे पराजित कर ही जीवित रह सकती है। इसलिए जीवित महात्मा गांधी के खिलाफ राष्ट्रीय उन्माद खड़ा करना और उनकी हत्या के बाद भी वह अभियान पूरी तिक्तता से जारी रखना संघ का एजेंडा था और है। इसी अभियान के तहत उनकी हत्या का फैसला लिया गया और संघ के सदस्य नाथूराम गोडसे ने, संघ परिवार के सभी वरिष्ठ जनों की जानकारी व सहमति से उनकी हत्या की। यह बात समाज भी जानता है और अदालत भी।
नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की यह जान कर और मान कर ही तो उसे इस अपराध में अदालत ने फांसी की सजा दी। नाथूराम गोडसे संघ
का नियमित सदस्य था, यह बात
भी इसी
तरह प्रमाणित है।
ऐतिहासिक सच की इस पृष्ठभूमि
में अदालत ने ऐसा बेतुका सवाल राहुल गांधी से कैसे कर दिया कि व्यक्ति हत्यारा था तो आपने सारे संगठन को इसमें कैसे लपेट लिया ? जवाब में
इतना ही
पूछना चाहता हूं कि राहुल गांधी के मामले में यह फैसला न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा का निजी फैसला है या भारत
के सर्वोच्च न्यायालय का फैसला है ?
इस फैसले की हैसियत ही कुछ नहीं है यदि दीपक मिश्राजी ने यह फैसला भारत की सबसे बड़ी अदालत की सबसे बड़ी कुर्सी पर बैठ कर नहीं दिया होता ! यह फैसला हमारी सबसे बड़ी अदालत ने दिया है, इसलिए हमारी चिंता का विषय है, न कि इसलिए कि किन्हीं दीपक मिश्राजी की ऐसी राय है। व्यक्ति जिस संगठन का प्रतिनिधित्व करता है, उसका सारा यश-अपयश संगठन के खाते में भी जाता है।
आप देखते ही हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ के सदस्य कहीं राहत का काम अच्छा करते हैं तो संघ उसे अपने खाते में जमा कर लेता है। ऐसे ही यह हत्या भी संघ परिवार के खाते में इतिहास ने जमा कर दी है।
अदालत चाहे तो
इतिहास के
पन्ने पलटे
और खोजे
कि क्या
संघ परिवार ने कभी भी
नाथूराम की
निंदा का
प्रस्ताव पारित किया; क्या संघ परिवार ने कभी भी, कहीं भी गांधी की हत्या के नाथूराम के पराक्रम का महिमामंडन
करने वालों को अपने संगठन या अपनी पार्टी से बाहर किया; क्या संघ परिवार ने कभी भी और कहीं भी नाथूराम का मंदिर बनाने वालों का सार्वजनिक धिक्कार किया।
नाथूराम और उनके भाई गोपाल गोडसे ने अदालत में एक ही टेक रखी कि उनका राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ के साथ कोई नाता नहीं था। इस असत्य की काट का कोई ऐसा ‘प्रमाण’ नहीं मिला अदालत को, जिसके आधार पर वह संगठन को भी अपराधी बताती। इससे यह साबित नहीं होता है कि संगठन अपराध में शामिल नहीं था बल्कि यह साबित होता है कि अदालती सच और सच के बीच गहरी खाई हो सकती है; और जो अदालत इस खाई को पाट न सके, वह न्याय का अधूरा ही दर्शन कर व करा पाती है।
इससे यह भी पता चलता है कि न्याय तक पहुंचने की कोशिश में अदालतों को ज्यादा सक्रिय व संलग्न होने की जरूरत है अन्यथा उनका फैसला एक तरफ और सच दूसरी तरफ छूट जाता रहेगा जैसा कई मामलों में हम देखते हैं। पुलिस पर्याप्त साक्ष्य पेश नहीं कर सकी इसलिए हमें आरोपी को लाचारी में छोड़ना पड़ रहा है, ऐसा अदालती बयान तो हम कई बार देखते है। पुलिस पेश नहीं कर सकी यह उसकी अक्षमता या गैर-ईमानदारी;
और आप ऐसा कोई रास्ता नहीं खोज सके कि पुलिस लाचार हो कर प्रमाण तक पहुंचे, यह अदालत की अक्षमता व अधूरेपन का प्रमाण !
जेल से छूटने के बाद गोपाल गोडसे ने पूरी
न्याय-प्रणाली को करारा चांटा मारा जब उसने
अपनी जीवनी में लिखा कि
मैंने और
नाथूराम ने
कभी भी
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की सदस्यता नहीं छोड़ी लेकिन हमें यह गलतबयानी करनी पड़ी क्योंकि हम पर इस
बात का
बहुत दवाब
था कि
हमें राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और
सावरकर को
हर हाल
में बेदाग रखना है।
अदालत के बाहर, उसकी पूरी प्रक्रिया का उपहास करने वाले इस खुलासे से न्याय दागदार हुआ, क्योंकि समाज जिस सच को जान व मान चुका था, अदालत ने उस सच तक न पहुंच पाने की चुनौती स्वीकार नहीं की और एक निर्जीव फैसला सुना दिया। पुलिस, प्रमाण, गवाह आदि के साथ कठघरे में कहा गया सच ही तो सच नहीं होता है। बारहा सच कहीं अदालत के बाहर ही भटकता मिलता है। महात्मा गांधी कि अब्राहम लिंकन कि जॉन केनेडी कि इंदिरा गांधी कि राजीव गांधी किसकी हत्या के बारे में कोई अदालत, किसी निष्कर्ष पर पहुंची है ? अपराधियों
तक या उनकी कठपुतलियों
तक ही अदालत पहुंच पाती है, खिलाड़ी तो कहीं बेदाग ही रह जाते हैं। महात्मा गांधी की हत्या के मामले में भी ऐसा ही हुआ है। राहुल गांधी के
पास एक
मौका है
कि वे
अदालत को
भी और
संघ परिवार को भी आईना
दिखा सकें
बशर्ते कि
वे खुद
टिन की
टूटी हुई
तख्ती साबित न हों।
- Syama Prasad Mookerjee complicit in
raising funds for defending Gandhi's killers
- Sardar Patel, then Union home minister,
confronted him for this act
- In his letters to Patel, Mookerjee mentions Hindu Mahasabha & RSS in the same breath
- How Sardar Patel cornered Syama Prasad
Mookerjee
- What are the links between RSS & Hindu
Mahasabha?
In the political
debate on the role of the Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS) in Mahatma Gandhi's
murder, triggered by Rahul Gandhi's remark and the Supreme Court's response, a
crucial point at issue is the closeness of the RSS to the Hindu Mahasabha. Activists of the Hindu
Mahasabha were accused and convicted of the murder. Today, the RSS
maintains that it was always ideologically distinct from the Mahasabha, as was
also argued by
Prafulla Ketkar, the editor of RSS newspaper Organiser, in Catch.
Yet historical documents spill over with
evidence of the closeness between the Mahasabha and the RSS in the period
leading up to the Partition. An icon for the
Bharatiya Janata Party (BJP), Syama Prasad Mookerjee, was complicit in raising
funds for the legal defence of those accused of Mahtama Gandhi's murder,
through his party, the Hindu Mahasabha. At the time, Mookerjee was not only
associated with the Hindu Mahasabha but was also the Minister of Industry and
Supplies in the Nehru Cabinet.
CORRESPONDENCE BETWEEN
SARDAR PATEL AND SYAMA PRASAD MOOKERJEE
On being questioned
about this by Sardar Vallabhbhai Patel, Mookerjee tried to fudge the issue. In
his replies Mookerjee suggested that funds were being raised only to defend one
of the accused, VD Savarkar and not the others. In a letter to Sardar Patel on
16 June, 1948, Mookerjee wrote:
My dear Sardarji,
I have received
your letter about the raising of subscriptions for the defence of accused in
Gandhiji's murder trial. I had a talk with Mr. [L B] Bhopatkar (President of
the Hindu Mahasabha at that time) about this matter this morning. I think the
position has been somewhat misunderstood. The Hindu Mahasabha has not appointed
any Defence Committee. The All India Defence Committee is an entirely
independent orgnaisation. As you have yourself hinted, the move for raising
funds started in some quarters mainly for the defence of [V D] Savarkarji. ...
As regards the
defence of the other accused, the matter was raised by the court on the opening
day of the trial. A few with the approval of the court sought the assistance of
Mr. Bhopatkar in making necessary arrangements. As was explained in the court
day before yesterday this has also been completed. ... But as I have
already said, funds mainly raised for Savarkar's defence have been placed in
the hands of the Defence Committee for utilisation.
In other words, the
money collected for the defence of Savarkar was given to the Defence Committee
to use as it saw fit! The mandate of the committee was to defend all Hindu
Mahasabha workers who sought its assistance.
Sardar Patel was
unimpressed by Mookerjee's explanations and asked him to explain the conduct of
his organisation again. On 9 September 1948, in his reply Mookerjee attached a
copy of Bhoptakar's explanation on raising funds for the Gandhi murder accused.
It is available in Selected Correspondence of Sardar Patel, Vol. 6,
Edited by Durga Das. Bhopatkar's letter
also made the same points: that the Defence Committee was funded by money
raised from "all the Hindu Sabhas in the country" as distinct from
the central body, All India Hindu Mahasabha.
This money was raised
for the defence of Savarkar. However, he admitted: "The Defence
Committee was appointed for giving legal aid to all such workers of Hindu
Mahasabha as required or called for it." All the Gandhi murder
accused - Nathuram Godse,
Digambar Badge, Gopal Godse, Narayan Apte, Vishnu Karkare and Madanlal Phawa -
were incidentally prominent members of the Hindu Mahasabha. Bhopatkar, admitted
that a circular letter was indeed sent by the Hindu Mahasabha across the
country "intended to call upon Hindu Sabhas to collect money for this
purpose." He further admitted
that while "not a penny" from the funds of the Hindu Mahasabha was
utilised for the trial, "Some of the rooms in the Hindu Mahasabha Bhavan
occupied by defence counsel are given on monthly rent"! It is questionable
whether giving its rooms on rent to those defending the murderers of the
Mahatma was purely a commercial decision on the part of the Hindu Mahasabha.
Sardar Patel's
response to these letters was terse and quick. A day after receiving
Mookerjee's letter, Patel wrote back on 10 September, 1948:
My dear Dr Syama
Prasad,
... It is
quite clear now that the Hindu Sabhas are being mobilised for the purpose of collecting
subscription for the Defence Fund. It is futile, therefore, to argue that the
Hindu Mahasabha is not officially concerned with it. It was open to the friends
and well-wishers of Mr Savarkar to organise separate agencies for the purpose
of collecting funds. If the official organisation of the Hindu Mahasabha is
being utilised for this purpose, there can be only one inference, namely, that
the Hindu Mahasabha is in it. After what you had written to me last time, this
has come to me as a great surprise.
So
there are strong grounds in this correspondence for believing that the Hindu
Mahsabha was "in it". But was the RSS was also in it? What was the
link between the two organisations at the time? Mookerjee's
correspondence with Sardar Patel shows that there was an organic link between
the Hindu Mahasabha and the RSS, which today's RSS activists deny. This link is
also established by Delhi Police CID in a report preceding the assassination of
Gandhi.
In May 1948, Syama
Prasad Mookerjee, pleaded with Sardar Patel to release the detained members of
the Hindu Mahasabha and the RSS in the aftermath of Gandhi's assassination. In his letter to Patel
on 4 May 1948, Mookerjee not only requested the release of some Hindu Mahasabha
activists who had been arrested under the Public Safety Act but also wrote in
the same letter that "The future of the RSS workers has also to be
settled."
He argued: "In
view of the great complications which may arise in connection with Hyderabad
and Kashmir, it is desirable that we should be able to create an atmosphere of
confidence and security amongst all sections of the people provided we are
satisfied that by a general order of releases we are not jeopardising the
course of law and order."
If there was no
ideological or organisational relationship between the Hindu Mahasabha and the
RSS, would Mookerjee be writing about them in the same breath? Patel's views on the
affinity of the two organizations, were quite clear. Of the Hindu Mahasbaha,
he noted: "We cannot shut our eyes to the fact that an appreciable number
of members of the Mahasabha gloated over the tragedy and distributed
sweets" and that given their militant communalism the detained members of
the organisation "could not but be regarded as a danger to public
security."
As for the RSS, Patel
said: "The same would apply to the RSS, with the additional danger
inherent in an organisation run in secret on military or semi-military
lines."
Other contemporary
observers also saw the two organisations as close allies. So did other
political observers who watched them act in tandem during the communal riots in
Punjab. Pointing to the close
relationship of the two entities, a source report of the Delhi Police's
Criminal Investigation Department dated 29 November 1947 claimed that "it
is believed that the RSSS [Rashtriya Swayam Sewak Sangh] and the Hindu
Mahasabha will conjointly contest the next Assembly elections from various
constituencies in India." Whether this alliance took place or not is
another matter. The point is that the two were thinking of fielding joint
candidates.
The complicity of the
RSS with the Hindu Mahasabha's agenda was also described in a pamphlet called
"Bleeding Punjab Warns" written by Dhanwantri and PC Joshi of the
Communist Party of India and published in September 1947. Describing the
organisation of execution of communal riots in Punjab, Dhanwantri wrote: "In the Punjab,
however, in the recent biggest ever killing ever seen, it was the trained bands
equipped with fire-arms and modern weapons that were the main killers, looters
and rapers. These were the storm troops of various communal parties such as the
National Guards of the Muslim League in the Western Punjab, and the Shahidi
Dals of the Akalis and the Rashtriya Swayamsewak Sangh of the Mahasabha in the
Eastern Punjab."
Their shared role in
the Punajb made them see each other as political allies, and according to P C
Joshi, emboldened them to demand a stake in political power together:
"The RSS and the
Hindu Mahasabha today feel powerful enough to openly demand in their Press he Sangram and Baljeet (Urdu
papers from Delhi) and the Organiser (English) that Bakshi Tek
Chand, the Mahasabhaite chief, should be made Governor of East Punjab and Rai
Bahadur Badri Prasad Das, the RSS boss, should be made premier."
Moreover, though the
RSS today disowns Nathruam Godse and others who assisted in the murder of
Mahatma Gandhi by claiming that they were not members of the RSS. This has been
denied by Nathuram Godse's brother himself. Gopal Godse is on record saying
that all the Godse brothers were members of the RSS and never left the
organisation. In an interview to Frontline as
late as 28 January 1994, Gopal Godse said: "You can say we
grew up in the RSS rather than in our home. It was like a family to us.
Nathuram had become a baudhik karyavah [intellectual worker]
in the RSS. He has said in his statement that he left the RSS. He said it
because [M S] Golwalkar ("Guruji" of the organisation) and the RSS
were in a lot of trouble after the murder of Gandhi. But he did not leave the
RSS."
V.D. Savarkar and Gandhi’s murder
मुकेश कुमार - हम क्यों चलें जाएं पाकिस्तान?
मध्यमार्ग का अवसान : दिलीप सिमियन (The Broken Middle, EPW, November 2014)