प्रोफेसर एम. एम. कलबुर्गी की हत्या के विरोध में PADS का वक्तव्य

प्रोफेसर एम. एम. कलबुर्गी की हत्या के विरोध में
पीपल्स अलायन्स फॉर डेमोक्रैसी ऍण्ड सेक्यूलरिज़्म का वक्तव्य

30 अगस्त को साम्प्रदायिकता और अंधश्रद्धा के ख़िलाफ़ एक मुखर आवाज़ को हमेशा के लिये शांत कर दिया गया. धारवाड़ में कन्नड़ भाषा के विद्वान और जनप्रिय लेखक, सतहत्तर वर्षीय प्रोफेसर एम. एम. कलबुर्गी के घर में जा कर हत्यारों ने उनको गोलियों से मौत के घाट उतार दिया. प्रोफेसर कलबुर्गी उदयकालीन कन्नड़ भाषा के वचना साहित्य और उत्तर कर्णाटक में आदिलशाही के दिनों में रचे गये साहित्य की खोजबीन में सक्रिय थे. कई विद्यार्थियों और विद्वानों के लिए प्रोफेसर कलबुर्गी ज्ञान का स्रोत थे. विद्यार्थियों के लिए उनके दरवाज़े हमेशा खुले रहते थे, जिसका फ़ायदा हत्यारों ने उठाया. अपने आप को विद्यार्थी बताते हुए वे उनके घर में घुस गये और अपने नापाक इरादे को अंजाम दिया. प्रोफेसर धार्मिक अंधश्रद्धा के तीव्र आलोचक थे; स्वयं उनकी लिंगायत जाति भी उनके तर्कपूर्ण और मुक्त विचारों को बरदाश्त नहीं कर पाई थी और उन्हें अपनी ही जाति के कट्टरपंथियों के कोप का शिकार बनना पड़ा था. उनको कई बार धमकियाँ मिली थीं और पुलिस की सुरक्षा भी दी गई थी जो उनकी हत्या के कुछ ही दिनों पहले वापस ली गई थी.

कर्णाटक के साहित्यिक और बौद्धिक वर्ग को प्रोफेसर की निर्मम हत्या ने एक ज़बरदस्त झटका दिया. बेंगालूरु और धारवाड़ में प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या के विरोध में कई प्रदर्शन हुए, जिसमें आम नागरिक भी शामिल हुए. लेकिन बजरंग दल के एक हिन्दूत्ववादी ने हत्या का सरेआम स्वागत किया इतना ही नहीं, एक और रॅशनालिस्ट प्रोफेसर के. एस. भगवान को भी चेतावनी दी कि उनका हाल भी यही होगा.

2013 के अगस्त में पुणे में डा. नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या हुई और इस साल फरवरी में कोल्हापुर में कामगार नेता गोविंद पानसरे को मार दिया गया. दोनों अडिग तर्कवादी थे जिन्होंने अंधश्रद्धा के ख़िलाफ़ अपनी मुहीम को कभी मंद होने नहीं दिया. रॅशनालिस्टों की हत्या के सिलसिले में प्रोफेसर कलबुर्गी तीसरे हैं जिन्हें केवल अपने विचारों के कारण मौत का शिकार बनाया गया है.

इन तीन प्रमुख प्रतिभाशाली रॅशनालिस्टों की हत्या हमें बांग्लादेश के उन चार निर्भीक ब्लॉगरों, वसीकुर रहमान बाबू, अभिजित रोय, अनंत बिजॉय दास और नीलॉय चटर्जी की याद दिलाती है, जो अपने रॅशनालिस्ट विचारों के कारण कट्टरपंथियों की आँखों में चुभते थे. आज दक्षिण एशिया में लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले हर किसी की जान पर कट्टरपंथियों का ख़तरा मंडरा रहा है और आपराधिक न्याय की स्थापित संस्थाएं इस ख़तरे का मुक़ाबला करने में नाकाम रही हैं.   

रॅशनालिस्ट और धर्मनिरपेक्ष विद्वानों और कार्यकर्ताओं की हत्या का यह सिलसिला लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के लिए गंभीर सवाल खड़े कर रहा है. सबसे प्रमुख बात यह है कि इन हत्याओं को रोकने में और अपराधियों को पकड़ने में राज्य की असफलता से हत्याओं की साज़िश रचने वाले और उनके हत्यारे आश्वस्त हो जाते हैं कि उन्हें कुछ होने वाला नहीं है. क्या यह असफलता प्रमाणों के अभाव का परिणाम है या राजनीतिक व्यवस्था के अपराधीकरण और सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों के फैलने का परिणाम है? भारत की आपराधिक न्याय संस्थाएं लोगों को धर्मांध तत्त्वों से बचाने में लगातार असफल रही हैं. मुस्लिम कट्टरपंथियों ने तसलिमा नसरीन और शिरीन दलवी का जीना नामुमकिन कर दिया है तो ईसाइयत के ठेकेदारों के आतंक से बचने के लिए रॅशनालिस्ट सनल एडमारुकु को विदेश में बसने के लिए मजबूर होना पड़ा है.

सांप्रदायिक नज़रिये से किये गये अपराधों की भी अनदेखी होती रही है. पिछले एक दशक में मुसलमानों की आबादी वाले रिहाइशी इलाक़ों में जब भी बम धमाके होते हैं तब पुलिस पहले तो मुसलमान युवकों को पकड़ लेती है. बाद में हेमन्त करकरे जैसे संनिष्ठ पुलिस अफसर के अथक परिश्रम से यह ज़ाहिर हुआ कि हिन्दूत्ववादी कट्टरपंथी गुटों का ऐसे कारनामों में हाथ था. हाल ही में मालेगाँव ब्लास्ट केस की पब्लिक प्रोसीक्यूटर सुश्री रोहिणी सलियान ने सार्वजनिक रूप से कहा है कि नॅशन्ल इन्वेस्टेगेशन एजेन्सी आरोपियों के विरुद्ध राज्य के द्वारा फाइल किये गये मुकद्दमे को जानबुझकर कमज़ोर बनाने का उन पर दबाव डालती है. क्या यह कोई अकस्मात ही है कि गुप्तचर एजेन्सियाँ और पुलिस के पास कुछेक अंतिमवादी संगठनों के ख़िलाफ़ सच में कोई सबूत नहीं है?

यह उल्लेखनीय है कि पश्चिमी महाराष्ट्र और उससे लगने वाला कर्णाटक राज्य का एरिया भौगोलिक रूप से एक इकाई बनाता है. ये तीन गणमान्य रॅशनालिस्टों की हत्याएं इसी क्षेत्र में भरेपूरे शहरों में हुई हैं. तीनों को जानेपहचाने ग्रुपों की ओर से धमकियाँ मिली थीं. पुलिस उनको अपराध से पहले पकड़्ने में असमर्थ रही यह न केवल पुलिस के पेशे की दृष्टि से शर्मनाक़ है, बल्कि ऐसा ऐसा दिन-ब-दिन लगने लगा है कि असमर्थता भी सोचसमझकर ओढ़ी हुई है.

डा. दाभोलकर की हत्या के बाद उनके बनाए हुए अंधश्रद्धा विरोधी विधेयक पर से एक दशक की धूल झाड़कर महाराष्ट्र की कोंग्रेस सरकार ने आननफानन में विधानसभा के सामने पेश कर दिया. अब कर्णाटक में भी कोंग्रेस सरकार ने प्रोफेसर कलबुर्गी के अंतिम संस्कार के समय उन्हें संपूर्ण राजकीय सम्मान दिया. ज़ाहिर है, कि आज देश के सवसे बड़े विपक्षी दल की जद्दोजिहद कोई घटना के बाद अपने सीने पर आप ही धर्म निरपेक्षता का तमग़ा लगाने की है. लेकिन, धर्म निरपेक्षता और प्रजातंत्र के संबंध में कोई सैद्धांतिक रूख़ अपनाने की उसकी नीयत नहीं दीखती और ये उसके बस की बात भी नहीं है. इधर, आम आदमी पार्टी भी हर रंग के धार्मिक नेताओं और गुटों के साथ गलबहियाँ करती नज़र आई है. हाल ही में दिल्ली में औरंगज़ेब रोड का नाम बदलने के मुद्दे पर उसने हिन्दूत्ववादियों का समर्थन किया है.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवाद्दी) ने कोलकात में मुस्लिम कट्टरपंथियों के उधामों के बाद तसलिमा नसरीन को कोलकाता छोड़ने के लिए मजबूर किया था. ये पार्टियों को सांप्रदायिक तो नहीं कहा जा सकता लेकिन उनकी धर्म निरपेक्षता अवसरवादी है और कट्टरपंथियों की अलोकतांत्रिक माँगों के आगे बिछ जाने में इनको हिचकिचाहट नहीं होती. भारत की स्थापित राजनीतिक पार्टियाँ लोकतंत्र और धर्म निरपेक्षता के उपर मंडराते खतरों के सामने सक्रियता से खड़ी रहे ऐसे आसार नज़र नहीं आते. आज यह ज़रूरी बन गया है कि लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताक़तें इकठ्ठा हो और यह संदेश फैलाये कि बगैर धर्म निरपेक्षता प्रजातंत्र नामुमकिन है.

प्रोफेसर कलबुर्गी ने पिछले वर्ष सुप्रसिद्ध लेखक और चिंतक यू.आर. अनंतमूर्ति के पूर्तिपूजा संबंधी विचारों का समर्थन किया था. इस कारण कइयों ने दावा किया कि उनकी “धर्मभावना को ठेस पहुँची”. इस पर से प्रोफेसर के ख़िलाफ़ एफ. आई. आर दायर की गई थी. अब मीडिया ने यह कहना शुरु किया है कि अंधश्रद्धा के विरुद्ध संघर्ष चला के उन्होने विवाद को निमंत्रण दिया था. आज तर्क, संवाद और मुक्त विचार के समर्थक बौद्धिक जन और हिंसा के हिमायती धार्मिक कट्टरपंथियों को एक ही तराजू पर तोलने की कोशिशें भी की जा रही हैं और दलील दी जाती है कि हत्या करना तो ठीक नहीं है लेकिन “धर्मभावनाओं को ठेस पहुंचाना” भी ठीक नहीं है.

ऐसी दलीलों की हम भर्त्सना करते हैं. समाज और इतिहास की सोचसमझ के साथ झाँच; और मान्यताओं के बारे में सवाल खड़े करना और सांस्कृतिक विविधता का स्वीकार करना प्रजातंत्र के लिए अनिवार्य है. प्रत्येक नागरिक की नैतिक स्वायत्तता ही आधुनिक लोकतंत्र का आधार है. हम जब प्रश्न पूछते हैं, नया ज्ञान प्राप्त करते हैं और आधारहीन मान्यताओं को चुनौती देते हैं तभी अपनी स्वायत्तता को ठोस रूप दे सकते हैं. जब लोग भय अथवा लालच से अंधश्रद्धा की राह पर चलते हैं तब अपनी स्वतंत्रता खो देते हैं. धार्मिक कट्टरपंथियों को चाहिए अंध अनुयायी, जो उनके घृणा और हिंसा के एजेण्डे पर चलने को तैयार हो.

एक ओर से, दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी जैसे लोगों के बिना लोकतंत्र का अस्तित्व संभव नहीं है, तो दूसरी ओर, सांप्रदायिक और धर्मांध लोग लोकतंत्र के दुश्मन हैं. इन दोनों को एक ही तराजू पर तौलना ग़लत दिशा में ले जाएगा. बहुत ही प्राथमिक स्तर की नैतिकता में भी ज़बानी व तार्किक आलोचना और हिंसक व्यवहार के बीच अंतर है. इन दो में से पसंद करना आवश्यक है और समाज में बड़ी तादाद में लोग दूसरे विकल्प की जगह पहले विकल्प का चुनाव करे तभी समाज लोकतांत्रिक बन पाएगा.

पीपल्स अलायन्स फॉर डेमोकैसी ऍण्ड सेल्यूलरिज़्म (PADS) प्रो. कलबुर्गी को श्रद्धांजलि अर्पित करता है और उनकी पत्नी, संतानें और उनकी हत्या के विरोध में आवाज़ उठाने वाले कर्णाटक के नागरिकों के प्रति अपनी एकजुटता प्रदर्शित करता है.
हम माँग करते हैं कि
  1. पुलिस अपना धर्म निभाए और नरेन्द्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एम. एम. कलबुर्गी के हत्यारों को शीघ्र न्याय के आसन समक्ष हाज़िर करे. इन हत्याओं का षड़्यंत्र बनाने वाले शख़्स और उनके संगठनों को ढूँढ निकाले और क़ानून के अनुसार उनको उचित नसीहत दिलाये.
  2. “धर्म भावना आहत होने” संबंधी क़ानून रद्द करने चाहिए. अग़र कोई किसी की धर्मभावनाओं को जान बुझकर ठेस पहुँचाता है अथवा किसी कौम को शाब्दिक या लिखित रूप में धमकी देता है तो घृणा फैलाने वाले वक्तव्यों संबधित क़ानून का प्रयोग किया जाए.
  3. हम शिक्षकों और यूनिवर्सिटियों के कर्मचारी यूनियनों, मीडियाकर्मियों और लेखक संघों से भी अपील करते हैं कि वे आगे आये और शिक्षकों, मीडियाकर्मियों और साहित्यिक क्षेत्र के कार्यकर्ताओं के वाणी स्वातंत्र्य की रक्षा की अपीलों का समर्थन करे.
हम जनता का ध्यान इस बात के प्रति भी आकर्षित करना चाहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी को चुनाव में सफलता मिलने से हिन्दूत्ववादी कट्टरपंथी ताक़तें मजबूत हुई हैं. वे लोग अब धड़ल्ले से सरेआम न केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों पर बल्कि लोकतांत्रिक और धर्म निरपेक्ष लोगों पर भी हमला करते हैं. लोकतांत्रिक और धर्म निरपेक्ष शक्तियों को चाहिए कि वे दुगने जोश के साथ इन कट्टरपंथियों के ख़िलाफ़ जनमत तैयार करने के प्रयास करे और लंबे और कड़े संघर्ष के बाद संविधान में अंकित स्वतंत्रताओं को बचाने के प्रयासों में जुट जाए.

Popular posts from this blog

Third degree torture used on Maruti workers: Rights body

Haruki Murakami: On seeing the 100% perfect girl one beautiful April morning

The Almond Trees by Albert Camus (1940)

Albert Camus's lecture 'The Human Crisis', New York, March 1946. 'No cause justifies the murder of innocents'

Etel Adnan - To Be In A Time Of War

After the Truth Shower

Rudyard Kipling: critical essay by George Orwell (1942)