सत्यपाल डांग को याद करते हुए.. RIP comrade Satyapal Dang - homage to a great man
Comrade Satyapal Dang stalwart of the communist movement in Punjab, passed away on June 15, 2013. Comrade Dang was one of the tallest figures of modern India. His courageous resistance to communal hatred, personal modesty and spotless honesty was an inspiration to lakhs of Indians, even those who remained outside his party. I shall add some memories to this post soon. Here is a tribute by Purushottam Agrawal, containing many shared experiences:
उनसे पहली भेंट ट्रेन में सहयात्री के रूप में हुई थी। वे भी जबलपुर जा रहे थे, और हम याने मैं और नीलांजन Nilanjan Mukhopadhyay भी। रास्ते में कुछ बातचीत हुई, और हमें लगा कि कोई रिटायर्ड बुजुर्ग अपने घर जा रहे हैं, हम लोग 'विवेचना' और इप्टा द्वारा आयोजित सांप्रदायिकता विरोधी सम्मेलन में हिस्सा लेने जा रहे थे। स्टेशन पर गाड़ी रुकने पर, आय़ोजकों के आने पर ही मालूम पड़ा कि हमारे साथ सेकेंड कलास में यात्रा करते, "रिटायर्ड बुजुर्ग" कामरेड सत्यपाल डाँग थे। वे ही सत्यपाल डाँग जिनके लेख हम लोग 'मेनस्ट्रीम' में अत्यंत उत्सुकता से पढ़ा करते थे और सोचा करते थे कि कभी मुलाकात हो तो यों बहस करेंगे, त्यों बहस करेंगे।बहस हुई, उस कार्यक्रम में भी जम कर बहस हुई। हम लोगों के लिए यह मानना मुश्किल था कि अकाली आंदोलन के 'फॉर्म' याने घोर सांप्रदायिकता पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत नहीं, उसके 'कंटेंट' याने किसानों के असंतोष पर ही ध्यान देने की जरूरत है। कामरेड डाँग पार्टी-लाइन का अनुसरण तो कर रहे थे, लेकिन हम लोगों की बातों के साथ संवाद बनाए रखने की गुंजाइश रखते हुए।
यह बात 1982 की है।1983 में जब साहित्येतर विषयों पर केंद्रित पत्रिका के रूप में 'जिज्ञासा' के पहले अंक का प्रकाशन किया, तब कई अन्य वरिष्ठों की तरह कामरेड डाँग का सहयोग भी हमें प्राप्त हुआ। 'जिज्ञासा', हिन्दी में अपनी तरह की पहली पत्रिका थी। हमारी कोशिश थी कि इतिहास, अर्थशास्त्र. समाजशास्त्र आदि विषयों की सामग्री प्रकाशित की जाए। पहला अंक सांप्रदायिकता पर केंद्रित था, संपादन मैंने और नीलांजन ने मिल कर किया था। संपादकीय में कही गयीं बातों से अनेक वामपंथी मित्र चिढ़े भी थे, लेकिन आगे के इतिहास में वे बातें सही ही साबित हुईं।
कामरेड डाँग से अगली मुलाकात 'सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन' के स्थापना सम्मेलन में, 1987 में हुई। दिलीप सीमियन, भगवान जोश और अन्य कई मित्रों के साथ मिल कर इस 'आंदोलन' का गठन किया था, पृष्ठभूमि में थे 1984 और 1987 ( मलियाना, मेरठ) के अनुभव। कामरेड डाँग को हमने गुरुशरणसिंहजी के साथ सम्मेलन का उद्घाटन भाषण देने के लिए बुलाया था। चाँदनी चौक की एक धर्मशाला में हुए इस सम्मेलन के साथ ही मेर जीवन के सबसे महत्वपूर्ण दौर का श्रीगणेश हुआ।1988 में दिलीप और जुगनू रामास्वामी के साथ मैं पंजाब की 'खोज-यात्रा' पर गया था। इस यात्रा में मुलाकातें हुईं थी सीपीआई, सीपीएम और एमएल के कार्यकर्ताओं से, कांग्रेस और भाजपा के नेताओं सें, स्वयं खालिस्तानी आंदोलन के प्रवक्ताओं से, दमदमी टकसाल तक जाकर मिले थे हम लोग खाड़कुओं और उनके 'आइडियालॉगस' से....और हमारा बेस कैंप था- अमृतसर में सीपीआई का ऑफिस, जो सत्यपाल डाँग का निवास-स्थान भी था।
हमारे सतत 'गाइड' थे कामरेड सत्यपाल डाँग....उसके बाद कुछ और मुलाकातें भी...आखिरी बार मुलाकात हुई- सन 2006 में जब वे किसी रिश्तेदार के घर, मेरठ आए हुए थे, मैं अक्षय बकाया के साथ उनसे मिलने गया था। मार्क्सवाद में उनकी आस्था हमेशा की तरह ताजी थी, लेकिन सोवियत संघ से लेकर भारत तक में कम्युनिस्ट आंदोलन की पस्ती का असर उन पर भी साफ दिखता था। खासकर जाति और जातिगत आरक्षण के प्रति पार्टी और वाम के रवैये पर उनकी खिन्नता बहुत मुखर थी। कामरेड सत्यपाल डाँग के निधन का समाचार जान कर लगा कि सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन से जुड़े अनुभव लिखने का समय आ ही गया है, 1984, 1987...फिर वह जुनुन हर तरह के सांप्रदायिक फासिज्म से लड़ने का, ऋ्तविक को पेट में लिए सुमन Suman Keshari Agrawal का वह साहस कि मैं दिलीप और जुगनू के साथ 1988 के पंजबा में प्रवेश कर रहा हूँ, माँ अपने आँसू रोक नहीं पा रही है, और सुमन....सदा की तरह सुदृढ़.... पाखंड खंडिनी पताका जैसे कितने आयोजन, मेरठ तक की पद-यात्रा....कितने भाषण, कितनी यात्राएं...संघी मित्रों तथा उनके अन्य संस्करणों की कितनी "कृपाएं"....सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन के दिनों के बारे में लिखना शुरु करना.... यह शायद आत्मकथा लिखने का आरंभ भी हो सकता है। (by Purushottam Agrawal)
उनसे पहली भेंट ट्रेन में सहयात्री के रूप में हुई थी। वे भी जबलपुर जा रहे थे, और हम याने मैं और नीलांजन Nilanjan Mukhopadhyay भी। रास्ते में कुछ बातचीत हुई, और हमें लगा कि कोई रिटायर्ड बुजुर्ग अपने घर जा रहे हैं, हम लोग 'विवेचना' और इप्टा द्वारा आयोजित सांप्रदायिकता विरोधी सम्मेलन में हिस्सा लेने जा रहे थे। स्टेशन पर गाड़ी रुकने पर, आय़ोजकों के आने पर ही मालूम पड़ा कि हमारे साथ सेकेंड कलास में यात्रा करते, "रिटायर्ड बुजुर्ग" कामरेड सत्यपाल डाँग थे। वे ही सत्यपाल डाँग जिनके लेख हम लोग 'मेनस्ट्रीम' में अत्यंत उत्सुकता से पढ़ा करते थे और सोचा करते थे कि कभी मुलाकात हो तो यों बहस करेंगे, त्यों बहस करेंगे।बहस हुई, उस कार्यक्रम में भी जम कर बहस हुई। हम लोगों के लिए यह मानना मुश्किल था कि अकाली आंदोलन के 'फॉर्म' याने घोर सांप्रदायिकता पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत नहीं, उसके 'कंटेंट' याने किसानों के असंतोष पर ही ध्यान देने की जरूरत है। कामरेड डाँग पार्टी-लाइन का अनुसरण तो कर रहे थे, लेकिन हम लोगों की बातों के साथ संवाद बनाए रखने की गुंजाइश रखते हुए।
यह बात 1982 की है।1983 में जब साहित्येतर विषयों पर केंद्रित पत्रिका के रूप में 'जिज्ञासा' के पहले अंक का प्रकाशन किया, तब कई अन्य वरिष्ठों की तरह कामरेड डाँग का सहयोग भी हमें प्राप्त हुआ। 'जिज्ञासा', हिन्दी में अपनी तरह की पहली पत्रिका थी। हमारी कोशिश थी कि इतिहास, अर्थशास्त्र. समाजशास्त्र आदि विषयों की सामग्री प्रकाशित की जाए। पहला अंक सांप्रदायिकता पर केंद्रित था, संपादन मैंने और नीलांजन ने मिल कर किया था। संपादकीय में कही गयीं बातों से अनेक वामपंथी मित्र चिढ़े भी थे, लेकिन आगे के इतिहास में वे बातें सही ही साबित हुईं।
कामरेड डाँग से अगली मुलाकात 'सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन' के स्थापना सम्मेलन में, 1987 में हुई। दिलीप सीमियन, भगवान जोश और अन्य कई मित्रों के साथ मिल कर इस 'आंदोलन' का गठन किया था, पृष्ठभूमि में थे 1984 और 1987 ( मलियाना, मेरठ) के अनुभव। कामरेड डाँग को हमने गुरुशरणसिंहजी के साथ सम्मेलन का उद्घाटन भाषण देने के लिए बुलाया था। चाँदनी चौक की एक धर्मशाला में हुए इस सम्मेलन के साथ ही मेर जीवन के सबसे महत्वपूर्ण दौर का श्रीगणेश हुआ।1988 में दिलीप और जुगनू रामास्वामी के साथ मैं पंजाब की 'खोज-यात्रा' पर गया था। इस यात्रा में मुलाकातें हुईं थी सीपीआई, सीपीएम और एमएल के कार्यकर्ताओं से, कांग्रेस और भाजपा के नेताओं सें, स्वयं खालिस्तानी आंदोलन के प्रवक्ताओं से, दमदमी टकसाल तक जाकर मिले थे हम लोग खाड़कुओं और उनके 'आइडियालॉगस' से....और हमारा बेस कैंप था- अमृतसर में सीपीआई का ऑफिस, जो सत्यपाल डाँग का निवास-स्थान भी था।
हमारे सतत 'गाइड' थे कामरेड सत्यपाल डाँग....उसके बाद कुछ और मुलाकातें भी...आखिरी बार मुलाकात हुई- सन 2006 में जब वे किसी रिश्तेदार के घर, मेरठ आए हुए थे, मैं अक्षय बकाया के साथ उनसे मिलने गया था। मार्क्सवाद में उनकी आस्था हमेशा की तरह ताजी थी, लेकिन सोवियत संघ से लेकर भारत तक में कम्युनिस्ट आंदोलन की पस्ती का असर उन पर भी साफ दिखता था। खासकर जाति और जातिगत आरक्षण के प्रति पार्टी और वाम के रवैये पर उनकी खिन्नता बहुत मुखर थी। कामरेड सत्यपाल डाँग के निधन का समाचार जान कर लगा कि सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन से जुड़े अनुभव लिखने का समय आ ही गया है, 1984, 1987...फिर वह जुनुन हर तरह के सांप्रदायिक फासिज्म से लड़ने का, ऋ्तविक को पेट में लिए सुमन Suman Keshari Agrawal का वह साहस कि मैं दिलीप और जुगनू के साथ 1988 के पंजबा में प्रवेश कर रहा हूँ, माँ अपने आँसू रोक नहीं पा रही है, और सुमन....सदा की तरह सुदृढ़.... पाखंड खंडिनी पताका जैसे कितने आयोजन, मेरठ तक की पद-यात्रा....कितने भाषण, कितनी यात्राएं...संघी मित्रों तथा उनके अन्य संस्करणों की कितनी "कृपाएं"....सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन के दिनों के बारे में लिखना शुरु करना.... यह शायद आत्मकथा लिखने का आरंभ भी हो सकता है। (by Purushottam Agrawal)