Hridayesh Joshi: चुनाव आयोग को निकाय चुनावों में इस्तेमाल होने वाली EVM मशीनों की ज़िम्मेदारी भी लेनी चाहिये

चुनाव आयोग को निकाय चुनावों में इस्तेमाल होने वाली EVM मशीनों की ज़िम्मेदारी भी लेनी चाहिये

यूपी में हाल में हुये मेयरऔर निकाय चुनावों के बाद एक बार फिर से ईवीएम को लेकर विवाद उठ रहा है। विपक्षी पार्टियां कह रही हैं कि ईवीएम में गड़बड़ी की वजह से बीजेपी जीती।  ईवीएम से हुये मेयर चुनाव में बीजेपी को भारी जीत मिली लेकिन बाकी जगह – जहां बैलेट से चुनाव हुये – वहां बीजेपी हारी। यह तथ्य इस बात को साबित नहीं करता कि ईवीएम में गड़बड़ी हुई है लेकिन जीतने वाले के राजनीतिक विरोधियों के साथ साथ बहुत सारे लोगों के दिमाग में शक ज़रूर पैदा करता है।

चुनाव आयोग बार बार रहता रहा है कि वह केवल उन्हीं ईवीएम मशीनों की ज़िम्मेदारी ले सकता है जो उसकी निगरानी में रहती हैं। ये वो मशीनें हैं जो लोकसभा और विधानसभा चुनावों में इस्तेमाल होती हैं और काफी मॉडर्न ईवीएम हैं। पुरानी हो चुकी ईवीएम आयोग निकाय और लोकल बॉडी जैसे स्थानीय चुनावों के लिये दे देता है। ये ईवीएम न तो कड़े सुरक्षा मानकों का पालन करती हैं और न ही इनकी ज़िम्मेदारी आयोग लेता है। ऐसे में ये ज़रूरी है कि चुनाव आयोग इन  मशीनों को - जिनकी ज़िम्मेदारी वह नहीं लेता - इस्तेमाल ही न होने दे जिनकी विश्वसनीयता संदिग्ध है। इन मशीनों के इस्तेमाल से न केवल एक विवाद खड़ा हो रहा है बल्कि पूरी चुनावी प्रक्रिया और लोकतन्त्र पर लोगों की आस्था डगमगा सकती है। इस पर बात करने से पहले लोकसभा औऱ विधानसभा चुनाव में ईवीएम प्रणाली को समझना ज़रूरी है।

आयोग जिन मशीनों से लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराता है उनमें कई स्तरों पर ये सुरक्षित किया जाता है कि गड़बड़ी न की जाये। एक ईवीएम में केवल 2000 वोट ही डाले जा सकते हैं। चुनाव से पहले तीन स्तरों पर ईवीएम की जांच की जाती है और उनमें 1000 वोट तक डाल कर टेस्ट वोटिंग करने का प्रावधान है। इस टेस्ट वोटिंग के दौरान राजनीतिक पार्टियों के नुमाइंदे मौजूद रह सकते हैं। क्योंकि किसी भी बूथ पर 100 प्रतिशत वोटिंग नहीं होती और औसतन एक ईवीएम पर 1500 से 1600 वोट ही पड़ते हैं तो 1000 वोट की टेस्टिंग पूरी तरह से संतोषजनक मानी जानी चाहिये बशर्ते राजनीतिक दलों के नुमाइंदे इस अधिकार का इस्तेमाल करें।

ईवीएम की सुरक्षा प्रणाली और जांच की प्रक्रिया काफी लम्बी है और इस पर कई लेख लिखे जा चुके हैं और चुनाव आयोग ने भी इस पर लम्बा नोट जारी किया है। इसके आधार पर ये कहा जा सकता है कि बैलेट से होने वाली वोटिंग – जिसमें मतगणना के वक्त भी गड़बड़ी मुमकिन है – के मुकाबले ईवीएम कई गुना सुरक्षित है। अब वीवीपैट यानी वोटर वेरिफायबल पेपर ऑडिल ट्रेल मशीनों को ईवीएम के साथ जोड़ा जा रहा है जिसके बाद वोटर को ये तक पता चल जाता है कि उसने जिसे वोट डाला उसे वोट पड़ा या नहीं। अब हर चुनाव ईवीएम से होगा इसकी घोषणा कर दी गई है। हाल में हुये हिमाचल चुनावों में ईवीएम का इस्तेमाल से लोग खुश थे और उन्हें तसल्ली हुई कि उन्होंने जिस वोट दिया वहीं वोट पड़ा।


यानी कड़े मानकों के तहत ईवीएम से चुनाव कराया जाये तो वह सर्वश्रेष्ठ चुनावी प्रणाली है। अब सवाल ये है कि निकाय / लोकल बॉडी चुनावों में इन ईवीएम को क्यों चलने दे रहा है जिसमें वह कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेता। सवाल पूछने पर आयोग हमेशा कहता है कि वो हमारी ईवीएम नहीं हैं। आयोग के अधिकारी कहते हैं जो ईवीएम हमारे सिस्टम से निकल जाती है वह हमारी ईवीएम नहीं रहती। आयोग के इस रवैय्ये से पूरी चुनाव प्रणाली प्रभावित हो रही है।  हारने वाली पार्टियों के नेताओं और समर्थकों को यह कहने का मौका मिल रहा है कि ईवीएम से टैम्परिंग हो रही है और कई मायनों में उनका शक जायज़ भी है। केंद्रीय चुनाव आयोग को समझना चाहिये कि इस बयान के आधार पर लोकसभा और विधानसभा के चुनावों को लेकर भी शक पैदा होता है और पूरी चुनावी प्रक्रिया संदिग्ध हो जाती है। आयोग को समझना चाहिये कि निकाय औऱ पंचायत चुनाव लोकतन्त्र की रीढ़ हैं और वहां फर्ज़ीवाड़ा करके अगर कोई चुनाव जीतता है तो ऊपर के स्तर पर चुनाव लड़ने वही लोग पहुंचेंगे जो फर्ज़ीवाड़ा करके आये होंगे। इससे ईमानदार राजनीति के साथ शुरुआत करने वालों का हौसला टूटेगा।

साफ है ऐसे में आयोग या तो इन स्थानीय स्तर के चुनावों में प्रयोग होने वाले ईवीएम मशीनों की ज़िम्मेदारी ले 
या फिर वह यहां बैलेट से चुनाव कराये वरना आने वाले दिनों पूरे देश में जो शक का जो वातावरण बनेगा वह 
जम्हूरियत को खोखला ही करेगा।






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