मध्यमार्ग का अवसान : दिलीप सिमियन (The Broken Middle, EPW, November 2014)
मध्यमार्ग
का अवसान : दिलीप सिमियन
1984 की हिंसात्मक घटनाओं को मुख्य रूप से सहमति की राजनीति और साझा भारतीय राष्ट्रवाद
के आदर्श के विघटन के रूप में देखा जाना चाहिए। जब साम्प्रदायिक शत्रुताएँ समाज में
व्यापक रूप से फैलती हैं, तो वे (प्रत्यक्षतः अथवा अवचेतन
ढंग से) सामाजिक चेतना को छिजाते हुए नरसंहार को सर्वमान्य बना देती हैं। 1984
के बाद हम आपराधिक न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता में क्षरण भी
देखते है, जिसके प्रभावों की परतें अभी भी खुल रही हैं। अब
समय आ गया है कि हम सभी दलों से ऊपर उठ कर सांप्रदायिक विचारधारा के कार्यकलापों
की ओर ध्यान दें। आज की वास्तविकता तो यही है कि उग्रवाद अब मुख्यधारा का हिस्सा
बन चुका है।
न्याय
के अन्त के साथ ही पृथ्वी से मानव जीवन के अर्थ का भी अंत हो जाता है । - इमैन्यूअल कांट
कभी अपराध उतना ही एकाकी था,
जितनी कि विरोध के लिए उठी आवाज, आज वह उतना
ही सर्वव्यापी है जितना कि विज्ञान; कल तक वह गैरकानूनी था
आज वह कानून का निर्धारण करता है । - अलबेयर कामू
औरवेलियन अर्थों में 1984 भारत के लिए अभूतपूर्व साल माना जाएगा। क्योंकर? क्योंकि
यह वह निर्णायक समय था जबकि सार्वजनिक
जीवन की भाषा का छलपूर्ण होना जरूरी मान लिया गया। सरकारी और राजनीतिक घोषणाओं और आँखों देखे और कानों सुने प्रमाणों के बीच न भरी
जा सकने वाली दरार पैदा हो गई और तो और यह दावा तक कि राजकीय संस्थाएँ और भारत
सरकार देश के कानून और नागरिकों की सुरक्षा के लिये कृत संकल्प है, भट्टी में झोंक
दी गईं या फिर वे भाप की तरह विलीन हो गईं।
इससे अधिक भयावह अनुभूति नहीं हो सकती कि अब सच का अस्तित्व नहीं है,
अब हमारे पास केवल सन्नाटा बचा है क्योंकि कोई सुनने वाला नहीं है
या फिर किसी पर भी विश्वास नहीं किया जा सकता। ऐसा मैंने, मेरे
दोस्तों ने और कुछ साथी नागरिकों ने 1984 के उन तीन दिनों में
और उसके बाद के महीनों में, आने वाले वर्षों में महसूस किया।
जिन हिंसात्मक घटनाओं ने 1984 में दिल्ली और अन्य शहरी केन्द्रों को अपनी चपेट में ले लिया था वे
राज्यसमर्थित, राजनैतिक रूप से प्रायोजित और साम्प्रदायिक
रूप से प्रेरित सिक्ख नागरिकों की हत्याएँ थीं, क्योंकि
प्रधानमंत्री के हत्यारे उसी समुदाय के थे। राज्य सत्ता कांग्रेस के पास थी। मारने
वाले अधिकतर सामान्य नागरिक थे, जिन्हें वरिष्ठ कांग्रेस जनों और उनके वफादार
समर्थकों ने उकसाया था। वे सामूहिक अपराध बोध की आदिम अवधारणा में विश्वास करते थे
(अर्थात् समुदाय के कुछ लोगों द्वारा किये गये अपराध की जिम्मेदारी उस
समुदाय के सभी लोगों पर है)। यह भी सम्भव है कि उन्हें यह विश्वास रहा हो कि न तो
उन्हें कोई रोकेगा और न ही उनके इस कृत्य के लिए उन पर कोई मुकदमा चलेगा। कई दंगाई
इसे राष्ट्र भक्ति की कार्यवाही भी मान रहे थे और यह भी कि उनके राजनीतिक नेता और
संरक्षक भी यही चाहते थे। इसके अलावा ऐसे अनेक गैरराजनीतिक लोग थे जो यह मानते थे
कि सिक्खों को पाठ पढ़ाना जरूरी था। इत्यादि।
दरअसल, हम सर्वमत से जनसंहार की
मनोदशा में थे। मेरे कहने का अर्थ यह कदापि नहीं कि हर व्यक्ति ही सम्भावित
हत्यारा हो गया था, किन्तु अधिकांश लोग जिन्होंने सीधे तौर पर सिक्खों पर आक्रमण
नहीं भी किया था उन्होंने भी आक्रमणों को या
तो माफ कर दिया अथवा वे सड़कों पर दंगाइयों के कब्जे को लेकर उदासीन रहे। यूँ तो 1920 के बाद से ही साम्प्रदायिक हिंसा भारतीय राजनीति का लगातार हिस्सा रही है,
किन्तु राज्य समर्थित साम्प्रदायिक हत्याकांड भारतीय राष्ट्रवाद की
प्रतीक रही राजनीतिक दल के तत्त्वाधान में स्वतन्त्र भारत की राजधानी में हुआ, यह
बात अभूतपूर्व थी।
और इसी कारण से 1984,
मध्यमार्ग के अवसान का वर्ष है। मुख्य धारा की राजनीतिक संस्कृति
में व्यापक स्तर पर भीड़ की हिंसा ने स्वीकृति पा ली। अब यह नहीं कहा जा सकता था कि बदले की राजनीति
का आरम्भ राजनीति के हाशिए से होता है। यह वह मध्यमार्गी सोच थी, जिसके विघटन ने साम्प्रदायिक
राष्ट्रवाद के विचार को नया स्वरूप प्रदान कर दिया।वर्ष1984
ने भारतीय राजनीति में नृंशसता के सामान्यीकरण और अराजकता के नये मानक स्थापित किये। इसने संविधान में आस्था
को कम किया और राजनीतिक दलों और व्यापक स्तर पर समाज में आपराधिक तत्वों को शक्ति
प्रदान की, इसने नौकरशाही और पुलिस में साम्प्रदायिक पक्षपात
को मजबूती प्रदान की तथा बड़े स्तर पर निराशावाद को जन्म दिया।
कई दिनों तक हिंसा को चलने
देने के बाद राज्य संस्था के शीर्ष पर बैठे लोगों ने खून खराबे को रोकने का निर्णय
लिया। इसके बाद सारा समाज मानो भयावह शब्दों के ज्वार से आप्लावित हो गया। उस समय
की सोच को मोटे तौर पर से दो रूपों में रखा जा सकता है- पहला जबरदस्त समर्थन का कि वे
इसी के योग्य थे (इसमें साफगोई झलकती थी) और दूसरा या तो पलायन का भाव लिए था अथवा
खुद को दोष-मुक्त करने का, जैसे “हत्या के बाद सिक्खों ने मिठाई बांटी”,
या “किसी भी परिवार में कभी-कभी बड़े भाई को छोटे भाई को थप्पड़
लगाना पड़ता है”,“कांगेस कार्यकर्ता जिम्मेदार हैं हम नहीं”; “आखिरकार उन्होंने
प्रधानमन्त्री की हत्या की थी और शोक का यह उफान देशभक्ति से प्रेरित था”; “जब एक
विशाल वृक्ष गिरता है तो धरती हिलेगी ही” आदि। वर्ष 1984 ने
हमारे यहां के जनमत निर्माताओं और विचारकों को एक साथ ही सच्चाई पर पर्दा डालने और
खुद को धोखे में रखने के लिये प्रेरित किया। एक दूसरे पर पक्षपातपूर्ण ढंग से
जिम्मेदार ठहराने ने गोया एक कला का रूप ले लिया। आखिर किसने यह बात नहीं सुनी कि 2002 में गुजरात में हुए जन संहार के लिये राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय
जनता पार्टी की निंदा नहीं की जा सकती क्योंकि 1984 में कांग्रेस ने भी तो हत्याकांड
नियोजित किया था? यह तर्क हममें से कुछ लोगों के लिये नशे की तरह है। सब अपराधी है
अतएव कोई भी नहीं। एक हत्याकाण्ड हो गया तो दूसरा भी हो सकता है।
1984 में, उस समय सरकारी पूर्वग्रह देखा गया जबकि निष्पक्षता की सबसे ज्यादा जरूरत
थी। हिंसक भीड़ अपने संप्रदाय की सर्वोच्चता का रेखांकन करते हुए साम्प्रदायिक
नारे लगा रही थी, गुरूद्वारों को अपवित्र कर रही थी और सड़क
से गुजरते हुए सिक्खों को जला रही थी। और कई दिल्लीवासी इन दृश्यों का मजा ले रहे
थे। और ऐसे समय में हमारे गृहमंत्री निष्क्रियता की प्रतिमूर्ति नरसिम्हा राव थे,
पर्याप्त संख्या में सशस्त्र सैन्य बल बुलाने में देरी थी, पूर्वाग्रहों
से भरे वक्तव्य थे, अपराध के लिए उकसा रही पुलिस थी, एफ.आई.आर. पंजीकरण न करने की
जिद थी, प्रमाणों को तोड़ना-मरोड़ना था, पब्लिक प्रॉसिक्यूटरों का कपटपूर्ण
व्यवहार था, जन संचार माध्यमों का व्यवहार इतना गैर जिम्मेदाराना था कि वह कई बार
तो हिंसा को भड़काने वाला लगता था, खुल्लम-खुल्ला न्यायिक लीपापोती थी, जिम्मेदार
अधिकारियों को दंड-स्वरूप स्थानांतरित करने की साजिश थी और नौकरशाही, पुलिस एवं
राजनेताओं की मिलीभगत ने तो आपराधिक लापरवाही की हदें पार कर ली थीं।[1] सामूहिक
बलात्कार के मामलों को तो अब तक दबाया जाता है।
2002 के
गुजरात में बहुत कुछ इसी तरह का था जिसमें शर्मनाक तेजी से बदला लेने के माहौल
(साम्प्रदायिक तनाव से भरे माहौल में चुनाव की घोषणा द्वारा) लाभ उठाना शामिल था। 1984 के लोक सभा चुनावों में कांग्रेस द्वारा जारी किए गए भारतीय सीमाओं के
सिकुड़ने वाले इश्तिहार इसी भावना की अभिव्यक्ति थे। ये तथ्य राज्य-सत्ता के
सर्वोच्च स्तर पर फैले आपराधिक मिलीभगत के द्योतक हैं। ऐसी लापरवाही तब तक संभव
नहीं, जबतक कि बड़ी संख्या में वे अधिकारी जिन पर ऐसी जिम्मेदारियाँ हैं, पूर्वग्रह
से ग्रसित नहीं हों, और इसके अलावा उन्हें यह विश्वास न हो
कि बड़े पैमाने पर जनता या तो निराश हो गई है अथवा अपराध में सहभागी है।
जनवरी 1985 में नव निर्वाचित प्रधानमंत्री ने संसद के संयुक्त अधिवेशन में
राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और एच.के.एल. भगत के साथ प्रवेश किया। वही भगत जिनके
संसदीय क्षेत्र में कई भयानक वारदातें हुई थीं (टाइम्स ऑफ़ इण्डिया, 1986)। इंदिरा गांधी की मृत्यु पर शोक प्रस्ताव पारित किया गया। राजीव गांधी ने
हल्की-फुल्की सहानुभूति जताई, जिसे किसी ने भी बड़ी संख्या
में मारे गये निर्दोष लोगों की नृशंस हत्या के प्रतिकार के लिये पर्याप्त नहीं
माना। इक्कीस वर्ष बाद, 11 अगस्त 2005
में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राज्य सभा में घोषणा की कि “1984 राष्ट्रीय शर्म और राष्ट्रीय त्रासदी थी, जिसके लिये उन्हें सिक्ख समुदाय
और सारे राष्ट्र से माफ़ी मांगने में कोई झिझक नहीं है।” उन्होंने यह अस्वीकार
किया कि इस हिंसा में कांग्रेस नेतृत्व की कोई मिलीभगत थी पर उन्होंने यह स्वीकार
किया कि नानावती आयोग ने उनके कुछ नेताओं को इसमें लिप्त पाया था। जगदीश टाइटलर को
मन्त्री मण्डल और सज्जन कुमार को दिल्ली सरकार की कुर्सी छोड़नी पड़ी।
1984, जिस पेचीदा प्रश्न
से हमारा सामना करवाता है वह यह कि यह कैसे संभव हो जाता
है कि किसी समाज के बहुत से लोग अचानक बेकसूर
लोगों को संताप और हताशा के कुएं में धकेलने लगते हैं। ऐसे क्षणों में न
केवल राज्यसत्ता बल्कि सारा ब्रह्मांड अन्याय की संड़ाध से भर जाता है। ऐसी स्थिति
में साधारण स्वीकृति मात्र भी हमारी पीड़ाओं को कम कर सकती है। किन्तु हमारे बड़े
से बड़े नेता इसमें सक्षम सिद्ध न हुए और तो और उनकी बातों और व्यवहार ने तो शोकाकुल परिवारों के जले पर नमक ही छिड़का। इससे
भारत की पुलिस व्यवस्था के बारे में जो भी धारणा बनती हो, किन्तु इससे भारत की
अन्तःचेतना की असंबद्धता पुष्ट होती है
बावजूद इसके कि कुछ न्यायाधीश इसके लिए “समाज की सामूहिक अंतःचेतना” जैसे मुहावरे
का प्रयोग करते हैं।[2]
आखिरकार हम कौन है? राष्ट्र होने का अर्थ क्या होता है?
वर्ष 1984 हमें एक बार फिर इन सवालों के रूबरू
खड़ा कर देता है। इसके अलावा कि जिसकी लाठी उसकी भैंस, और कोई उत्तर अभी तक नहीं
मिल पाया।
हमारी आँखों पर
पट्टी
“छल की जरूरत” जैसी शब्दावली
का क्या मतलब है? इसे समझना बहुत आसान
है।
उस हाल में जबकि पुलिस पर
इसलिए विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि वह आँखों के सामने हो रहे भयानक अपराधों
से निगाह फेर लेती है, तब यह कहना भ्रामक है कि भारत सरकार की कार्यवाही हमेशा
कानून सम्मत होती है। इस तथ्य को नज़रअंदाज करना छल करना है।
उस हाल में जबकि एक भी
न्यायाधीश के वक्तव्य में साम्प्रदायिक पूर्वग्रह की गंध आए, यह कहना भ्रामक है कि
भारत की आपराधिक न्यायिक व्यवस्था पर विश्वास किया जा सकता है कि वह संविधान की
रक्षा करेगी। इस तथ्य को नज़रअंदाज करना छल करना है।
उस हाल में जबकि सार्वजनिक अभियोजनकर्ता
(पब्लिक प्रॉसिक्यूटर) गलत काम करने वालों को बचाने का प्रयत्न करता है, यह कहना
झूठ है कि पब्लिक प्रॉसिक्यूशन न्याय और लोक व्यवस्था के हित में किया जाता है। इस
तथ्य को नज़रअंदाज करना छल करना है।
यह दावा करना गलत है कि
राजनीतिक दल सभी भारतीयों के हितों का प्रतिनिधित्त्व करते है,
जबकि हम यह देख सकते हैं कि वे किसी विशिष्ट तबके या साम्प्रदायिक
विभाजन को ही प्रोत्साहित करते हैं। इस तथ्य को नज़रअंदाज करना छल करना है।
यह दावा भ्रामक है कि जे.एस.
भिण्डरांवाले मात्र एक धार्मिक उपदेशक था, जिसे भारतीय राज्य ने इस बात की सजा दी कि वह सिक्ख धर्म को शुद्ध करना
चाहता था और न्याय के लिये संघर्ष कर रहा था। इस प्रकार के दावे हिंसात्मक अपराधों
में उसके लिप्त होने, संवाद की उपेक्षा करने, घृणा को
उकसाने, स्वर्ण मंदिर को अपवित्र करने तथा सारे सिक्ख समुदाय के प्रतिनिधित्त्व के
उसके दावे की यादों को खत्म करने की कोशिशे हैं। इस तथ्य को नज़रअंदाज करना छल
करना है।
“कांग्रेस ने सिक्खों को मारा”
जैसे जिम्मेदार ठहराने वाले सवालों को पूर्णतः पक्षपातपूर्ण ढंग से उठाना भ्रामक
है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता इस हत्याकांड के प्रमुख प्रवर्तक थे, इतना भर कहना ही पर्याप्त नहीं है। इस प्रकार के कथन 1984 की हिंसा में
अन्तर्निहित गहरी और स्पष्ट साम्प्रदायिक घृणा को छिपाने का काम करते हैं। । यह इस
तथ्य को भी छिपा जाता है कि हत्यारे अपने आपको देशभक्त मान रहे थे जो “राष्ट्र
विरोधी सिक्खों” को पाठ पढ़ाना चाहते थे। यह 1980 के आरंभ
में उत्तर भारत में साम्प्रदायिक रूप से उत्तेजित वातावरण की भी अनदेखी करता है,
जिसे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने समय-समय पर चालाकी से इस्तेमाल किया। यह इस बात को साफ नहीं करता कि ऐसे लोगों ने भी
जिनकी कांग्रेस के प्रति सहानुभूति नहीं थी, सारे समुदाय के लिए कठोर दण्ड मानते हुए इस
हिंसा की प्रशंसा की। यह भी स्पष्ट नहीं होता कि क्योंकर सज्जन कुमार को जिन पर 1984 के लिये अभी भी मुकदमा चल रहा है, 2004 के चुनावों
में सबसे अधिक मत मिले।[3]1984 में कांग्रेस अपने आपको साम्प्रदायिक विचार और हिंसा का वाहक बना लेती
है।
किन्तु विचारधारा के बीज संगठन से ऊपर और उसके परे भी होते हैं। यह याद रखना
आवश्यक है कि वैचारिक विशिष्टताएँ, उतनी ही महत्त्वपूर्ण है
जितनी की संगठनात्मक। इस तथ्य को नज़रअंदाज करना छल करना है।
पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण हमारा
ध्यान नियन्त्रित भीड़, निजी सेनाओं,
सशस्त्र स्वयंसेवकों (विजिलांते ग्रुप्स) और राजनीतिक हत्याओं से भी हटाता है। भारत में निजी
सेनाओं की उपस्थिति 1947 से पहले से है। नवम्बर 1947 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति, जिसमें पटेल और
नेहरू सम्मिलित थे, ने एक प्रस्ताव पारित किया कि “निजी सेनाओं के रूप में गठित
मुस्लिम नेशनल गार्ड, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और अकाली
कार्यकर्ताओं सरीखे संगठन वस्तुतः बड़ी मेहनत के बाद जीती गई स्वतन्त्रता के लिये
खतरा हैं।”[4] किन्तु
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था, व्यापक राजनीतिक परिदृश्य का हिस्सा बन गई नैतिक
दरोगागिरी को नियन्त्रित नहीं कर सका।[5]
निजी
सेनाओं और तथाकथित “मुख्यधारा” के दलों के बीच गहरे संपर्क-सूत्र इस बात के द्योतक
हैं कि या तो शासक अभिजन उनका उन्मूलन करना ही नहीं चाहता अथवा अब यह संभव ही न रहा।
कई बार ये गिरोह अपने आपमें स्वायत्त या अर्द्धस्वायत्त अस्तित्व प्राप्त कर लेते
हैं। उत्तर-पूर्व के विद्रोही दलों, 1980 के दशक में बने
खालिस्तान के सशस्त्र समूहों, इस्लामिक लश्कर और मुजाहिद्दीन
और अनेकों जाति आधारित सशस्त्र स्वयंसेवक समूहों के राजनीतिक, मानवीय और वित्तीय संसाधनों की जाँच से इन संपर्कों की जानकारी हासिल की
जा सकती है। शिव सेना ने अपना नाम सेना रख रखा है और वह बार-बार मुम्बई के जातीय
अल्पमतों के खिलाफ़ गुण्डागर्दी करती है। इसके नेता अपने भाषणों और गतिविधियों से
हिंसा फैलाने के अलावा तमिल उग्रवादियों के आंतकवाद की तारीफ करते रहे हैं (दी
टाइम्स आफ़ इण्डिया, 2003)। बावजूद इसके यह दल महाराष्ट्र की
सत्ता का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।
भारत में निजीकृत हिंसा एक
भयानक किंतु उपेक्षित सत्य है। इससे मुख्यधारा में निहित उग्रवाद को समझने की
कुंजी हासिल होती है। भारत की विविध सरकारें सलवा जुडुम और रणवीर सेना जैसे सैनिक
दलों को तो संरक्षण देती हैं पर वे साथ
साथ “वामपंथी उग्रवाद” को भारत की सुरक्षा
के लिये सबसे बड़ा खतरा बताती हैं इसके
साथ ही उन्होंने आर.एस.एस. से संबंधित अर्द्धसैनिक संगठनों और विश्व हिन्दू परिषद्
और बजरंग दल जैसे मोर्चों तथा कट्टरवादी इस्लामिक उलेमाओं को इस बात की अनुमति दे
रखी है कि वे खुलेआम घृणा फैलाएँ और गुण्डागर्दी करें। अनेक निजी सेनाओं में से एक
है - माओवादी सैन्य समूह, जिनका
संबंध भी कुछ निहित स्वार्थों से है। यह सोचना कि ये सतर्कता (विजिलांते) समूह बुर्जुआ
सिविल सोसाइटी के समर्थन के बिना ही दशकों से चल रहे हैं, खुद को धोखा देना है।
इसलिये ‘‘छल की आवश्यकता’’ जैसी शब्दावली का अर्थ है अभिजनों
से इतर, समाज के बड़े हिस्से, जिसमें सभी समुदाय शामिल हैं, अपने
अस्तित्व के लिए निरंतर झूठ परोसते हैं,ताकी सामूहिक अपराध की मिली भगत पर आवरण पड़ा
रहे और वे अपने सद्गुणों के प्रति आश्वस्त रहें और मानते रहें कि रोजमर्रा के जीवन में कहीं भी कुछ खौफ़नाक नहीं
घटा है। ऐसी जरूरत का एक कारण मनुष्य की यह सामान्य प्रवृत्ति भी है कि जो हमारे
तर्कों के अनुकूल है वही हमारी दृष्टि में महत्त्वपूर्ण भी है। असहज बनाने वाली
बातों को तो हम भूल जाना चाहते हैं। हम चाहते है कि अच्छाईयों और बुराईयों में स्पष्ट
सीमांकन हो,किन्तु दुर्भाग्य से वे मिलेजुले रूप में ही आती
हैं, और इससे भी भ्रम पैदा होता है।
पुनर्स्मरण
1984 को फिर से याद
करना वस्तुतः उन अनुभवों को पुनः जीना है।इससे जुड़े दो दस्तावेज–‘हू आर दी गिल्टी’?
(मुखोटी और कोठारी 1984)शीर्षक सेएक सिविल रिपोर्टतथा
व्यक्तिगत घटनाओं आदि का संकलन‘दिल्ली रायट्सः थ्री डेज़ इन दी लाइफ़ आफ़अ नेशन’(चक्रवर्ती
तथा हक्सर 1987) अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। हत्याकांड पर
आधारित मिट्टा और फुल्का की किताब2007 में प्रकाशित हुई थी। मानव
अधिकार पर लिखी प्रीतम सिंह की पुस्तक 2010 में प्रकाशित
हुई, इसमें जून 1984 से पहले की घटनाओं का भी वर्णन है। इन
सभी को ध्यान से पढ़ने की जरूरत है।
मैं अपनी भी कुछ यादों को यहाँ
प्रस्तुत करना चाहूँगा। मैंने साम्प्रदायिक हत्याओं के बारे में बचपन में अपने सैनिक
अधिकारी पिता से सुना था, जो
1946 में कलकत्ता में हुईं हत्याओं के समय फ़ोर्ट विलियम में
नियुक्त थे। मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मैं स्वयं भी इस तरह की कोई घटना
कभी देखूँगा। 1984 में मैं रामजस कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापक था। 1 नवम्बर को
मैं लाजपत नगर वाले शान्ति प्रदर्शन में सम्मिलित हुआ, हमारा
सामना त्रिशूलधारी भीड़ से हुआ जो लूटपाट कर रही थी। हमारी भेंट सिक्ख टैक्सी
ड्राइवरों से हुई जो भय और अपमान से रो रहे थे और हमने गुरूद्वारों को जलते देखा।
धुएँ की दीवारें शहर के दूसरे हिस्सों से उठती हुई नजर आ रही थीं, ऐसा लगा कि हम युद्ध क्षेत्र में है। यह सूचना मुझे बेचैन कर देने वाली थी
कि इस हिंसा में अनेक विद्यार्थी भी शामिल थे और तो और कई अध्यापक इस हिंसा को
उचित मान रहे थे (मैं यह भी जोड़ दूँ कि कुछ छात्रों ने छात्रावासों में सिक्खों
को पनाह भी दी)।
बहुत ही जल्दी नागरिक एकता मंच
के तत्त्वाधान में कुछ भले नागरिकों ने बड़े पैमाने परराहत का काम शुरू कर दिया और
सामान, दवाईयाँ आदि वितरित कीं और (दंगों में) फंसे हुए लोगों को मदद पहुंचाई। मैं
त्रिलोकपुरी में बचाव कार्य के दौरान एक युवा विधवा के घर पर गया। यह गली एक निम्न
मध्यम वर्गीय बस्ती में थी। इसमें सिक्ख घर को उसके जले होने के कारण पहचाना जा
सकता था। सामने का दरवाजा पूरी तरह जला
हुआ था। छत के पंखे की पंखुड़ियाँ पिघल कर नीचे की ओर मुड़ गई थीं। एक पुलिस कांस्टेबल के साथमैं और मेरी
सहयोगी नित्या सीढि़याँ चढ़ कर बरसाती में पहुंचे।दरवाजा खुलने में समय लगा। अन्दर
एक युवा स्त्री, उसकी माँ और दो बच्चे थे। जब गोद की बच्ची ने लाठी लिए पुलिस वाले
को देखा तो वह जोर-जोर से रोते हुए बोली, “मेरी मम्मी को मत मारो!” उसने अपने
दादाजी और पिता को मार खाते, जलते
और मरते हुए देखा था। मैं आज तक दहला हुआ हूँ और इन लोगों की यातनाओं से द्रवित
हूँ। वे आज अपने ही शहर में शरणार्थी बना दिए गए थे। आज वे बच्चे कहां है? वे कभी भी इसे समझ पाएँगे कि हुआ क्या था?
24 नवम्बर 1984 को विश्वविद्यालय के कुछ अध्यापकों ने इस नरसंहार के विरूद्ध एक प्रदर्शन
किया था। दिल्ली में यह अपनी तरह का एक ही प्रदर्शन था। यह कहना बेमानी है कि
बहुचर्चित मुख्यधारा वहाँ अनुपस्थित थी, न ही वहाँ सिक्खों
को केशधारी हिन्दू मानने वाला और 1984 बनाम 2002 को पिंगपोंग की तरह उछालने वाला राष्ट्रीय
स्वयं सेवक संघ किसी तरह के विरोध के लिए उपस्थित था। उन गलियों में निकलकर
हत्याकांड का विरोध करने वाले हम झोले-वाले ही थे। विरोध करने वाले उन लगभग 5000 लोगों में सभी तबके के लोग थे- अध्यापक, छात्र,
ऑटो चालक, जामा मस्जिद के दस्तकार - सभी लाल किले
से बोट क्लब तक पैदल चले, और रास्ते में खड़े लोग भी उसमें जुड़ते
चले गये। कोई भाई-भाई के नारे नहीं थे, केवल न्याय की मांग
थी। कुछ स्थानों पर कांग्रेस समर्थित प्रतिविरोधी भी थे जो हमें चीख-चीख कर
देशद्रोही बता रहे थे। उनकी आंखों में घृणा देखकर मैं हतप्रभ था। उनके मानस में
सामूहिक हत्या में सम्मिलित होना राष्ट्र-प्रेम था और न्याय की मांग करना राष्ट्र-विरोध।
इसी तरह के विद्रूप समझ वाला राष्ट्र-वाद आज भी सक्रिय है। एक अतिवादी वामपंथी
समूह के अलावा अन्य साम्यवादी पार्टियाँ अनुपस्थित थीं, किन्तु उनके छात्र संगठनों
के सदस्यों ने उत्साह से भाग लिया।
हमारे प्रदर्शन का मीडिया ने
बहिष्कार किया, केवल इंडियन
एक्सप्रेस ने अन्दर के पेज पर तीन लाइन का समाचार छापा (25
नवम्बर 1984)। दो सप्ताह के बाद स्टेट्समैन में किसी व्याख्याकार
ने अपना मत लिखा, जिसमें उग्रवाद के खतरे बतलाये गये थे।
उसके अनुसार 5000 सशस्त्र सिक्खों ने दरियागंज से खूनी बदले
की मांग करते हुए मार्च निकाला। इस तरह अनेक पत्रकारों ने भी भयावह झूठ फैलाए।
अनेक साधारण लोगों ने हमारे प्रदर्शन को सराहा, मेरे लिये यह जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण
प्रदर्शन है, जिसमें मैं शामिल हुआ।
नवम्बर 1984 में ही हिन्दू कॉलेज के विद्यार्थियों ने कामरेड सुमन्त बनर्जी और मुझे
इन घटनाओं पर बोलने के लिये बुलाया। इतने
लोग सुनने को पहुँचे कि कॉलेज का सेमीनार कक्ष छोटा पड़ गया, अतः सभागार खोला गया। सभागार पूरी तरह भरा हुआ था। हमें बाद में पता लगा
कि सभागार खोलने का कुछ अध्यापकों ने विरोध किया था, वातावरण
गमगीन थाऔर श्रोता स्पष्ट तौर पर साम्प्रदायिक हिंसा के विरुद्ध थे, हालांकि इस विषय पर बहुत-सी भ्रान्तियाँ फैली हुईं थीं। अन्य बातों के साथ
मैंने यह बात भी कही कि साम्प्रदायिक हिंसा का प्रतिरोध और अधिक हिंसा से नहीं
किया जा सकता, बल्कि इसका प्रतिरोध समुदायों से इतर,
समाजवादी उद्देश्य वाले बड़े लोकतान्त्रिक आन्दोलन से ही हो सकता है। मुझे याद है
कि भाषण के बाद एक सिक्ख छात्र मेरे पास आया, जिसकी आंखों
में आंसू भरे थे, बोला उसे और कुछ नहीं बस न्याय चाहिए। मै
उसे सकून देने के लिये भला और क्या कह सकता था।
साम्प्रदायिकता
विरोधी आन्दोलन
राहत शिविरों में कार्य करने
वाले कुछ समाज कर्मियों ने नवम्बर 1984 में अपने पैसों से स्वयंसेवी संस्था-साम्प्रदायिकता विरोधी आन्दोलन (एस वी
ए) की स्थापना की। हम चाहते थे कि साम्प्रदायिक हिंसा होने के बाद केवल
प्रतिक्रिया स्वरूप काम करने की बजाय, जड़ से ही उसे रोकने के लिए व्यवस्थित रूप
से काम किया जाए। इस आंदोलन ने साम्प्रदायिक राजनीति के खिलाफ़ संघर्ष किया और 1984 के अपराधियों को सजा दिलाने
के लिए अनेक प्रदर्शन आदि किए। वर्षों काम करते हुए हमें ज्ञात हुआ कि पूर्वी
दिल्ली की अनेक कॉलोनियों में कई नामों से ऐसे दल बन गए हैं, जो वस्तुतः उन
राजनीतिज्ञों के हितों की पूर्ति कर रहे थे जिनके नाम हिंसा में संलिप्त हैं। पुलिस
द्वारा एफ़ आई आर दर्ज न करने की कोशिशें, गवाहों को आंतकित करने के प्रयास और पब्लिक
प्रॉसिक्यूटर के कपटपूर्ण व्यवहार के बारे में भी हमारा ज्ञानवर्द्धन हुआ। यह सब
न्यायाधीश रंगनाथ मिश्रा जाँच आयोग (1985) के संदर्भ में था, जिनकी
जांच, हमारी धारणा में लीपा-पोतीमात्र है।
साम्प्रदायिकता विरोधी आन्दोलन ने
साम्प्रदायिकता की अवधारणा पर भी चर्चाएँ कीं। जनवरी 1989
में इसने अपना संविधान घोषित किया और सदस्यों के लिये नियम बनाये। दो बड़े
साम्यवादियों- सतपालडांग और गुरूशरण सिंह ने स्थापना सम्मेलन में भाग लिया। उसी
वर्ष तीन सदस्यों (पुरूषोत्तम अग्रवाल, स्वर्गीय जूगनू
रामास्वामी और मैं) ने अपने आन्दोलन के हिस्से के रूप में पंजाब की यात्रा की।
साम्प्रदायिकता विरोधी आन्दोलन 1984 की हिंसा का प्रत्यक्ष परिणाम
था और 1993 तक जारी रहा।[6]
6 फरवरी 1985 को मैं पीपुल्स यूनियन फ़ॉर ड्रेमोक्रेटिक राइट (पी यू डी आर) की सुनवाई
में गया, जिसने उच्च न्यायालय में यह अपील दायर किया था कि पुलिस को एफ़ आई आर
दर्ज करने का आदेश दिया जाए। जब वहाँ ‘हू आर द गिल्टी’ शीर्षक पुस्तक की एक प्रति न्यायाधीश को दी गई तो न्यायाधीश ने उसे घृणा
से एक तरफ फेंक दिया और अध्यापकों, पत्रकारों और नागरिक
स्वतन्त्रताओं से जुड़े संगठनों की निंदा की। जब पीयूडीआर के अध्यक्ष गोविन्द
मुखौटी ने याद दिलाया कि गम्भीर अपराध हुए हैं और कहा कि दिल्ली पुलिस को अपराध
पंजीकृत करने का आदेश दिया जाए तो न्यायाधीश ने कहा कि “इसकी भी पृष्ठभूमि है।” न्यायाधीश
के शब्दों से ऐसा लग रहा था कि वे निर्दोषों की हत्याओं के अपराध को सामूहिक
प्रतिकार के रूप में उचित ठहरा रहे थे। हर अपराध की पृष्ठभूमि होती है, किन्तु केवल निष्पक्ष जांच ही यह स्थापित कर सकती है कि न्यायिक प्रक्रिया
के लिये वह कितनी प्रासंगिक है। न्यायाधीश का काम यह नहीं था कि वह पूर्वग्रह-पूर्ण
टिप्पणियाँ करें, विशेषकर तब जबकि मांग ही यह हो कि विधिवत् न्याय प्रक्रिया शुरु
तो की जाए। उनकी बातों में साम्प्रदायिक घृणा साफ नजर आ रही थी, आगे चलकर उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नत कर दिया गया।[7]
1984 तक भगत सिंह के औपचारिक
तौर पर जारी लोकप्रिय चित्रों में उन्हें दाढ़ी विहीन, मूंछ
रखे, हैट पहने और रिवाल्वर लिए युवक के तौर पर दिखाया जाता था। फिर ब्ल्यू स्टार हुआ
और हत्याएँ हुईं। 23
मार्च 1985 को हमेशा की तरह ही इस महापुरुष की स्मृति में
सरकारी विज्ञापन छपा। किंतु इस बार भगत सिंह को पगड़ीऔर दाढ़ी, तथा सुखदेव और राजगुरू को नेहरू टोपी पहने पेश किया गया था। यह तब जबकि दिल्ली पुलिस एफ़ आई आर दर्ज करने से मना
कर रही थी। इस सामूहिक हत्याकांड के बाद हमारी सरकार एक ओर तो संविधान को ध्वस्त
करने में व्यस्त थी और साथ साथ उसने हमें यह भी याद दिलाना उचित समझा कि भगत सिंह अततः
सिक्ख थे।
1986 के आरम्भ में
साम्प्रदायिकता विरोधी आन्दोलन ने यह निर्णय किया कि वह राष्ट्रीय समन्वयन समिति
के सदस्यों के साथ मिलकर साम्प्रदायिकता
के प्रश्न तथा न्याय की आवश्यकता पर काम करेगा। हमने एक अपील तैयार की, जो 1986 में मेनस्ट्रीम में प्रकाशित हुई।
हममें से कुछ लोगों को राजनीतिज्ञों से भेंट के लिये चुना गया। मुझे भारतीय जनता
पार्टी (भाजपा) के एक वरिष्ठ नेता से मिलने को कहा गया, जिनसे मेरा परिचय मेरे एक
सहयोगी ने करवाया। वे नेता बहुत ही सहृदय थे, उन्होंने और
उनकी पत्नी ने मेरे साथ चाय पी। मैंने अपनी अपील उन्हें दी, और
बुद्ध के दांतों, गुरू गोविन्द सिंह के घोड़े और राम के जन्म
स्थान के इर्द-गिर्द फैलाए जा रहे घृणापूर्ण सांप्रदायिक प्रचार पर बात करने की कोशिश
की। बातों के बीच में इन महोदय ने मेरी ओर देखा और कहा कि “भारतीयों को आर्थिक
आधारों पर संगठित नहीं किया जा सकता।”
यह दोनों तरह से चौंकाने वाला वक्तव्य था। पहला राजनीतिक शब्दाडम्बर
के तौर पर इसमें अंतर्निहित उपयोगिता की दृष्टि से और दूसरा वह भोलापन जिससे यह
कहा गया था। उन्हें शायद यह अहसास नहीं था कि उनका कथन साध्य की सफलता में ही साधन
के औचित्य को देख रहा था। उनका लक्ष्य, एकदम स्पष्ट था- किसी
भी कीमत पर सत्ता।
साफगोई से बात करने के क्रम
में ही उन्होंने बतलाया कि दिल्ली में उनकी पार्टी के सदस्य उनसे कह रहे हैं कि
हत्याकांड में मारे गए “सिक्खों की संख्या” को न बढ़ाया जाए। भा ज पा के भीतर
सिक्खों के खिलाफ़ पूर्वग्रह की इससे साफ स्वीकृति मैंने पहले कभी न सुनी थी, (मैं
पहले ही कह चुका हूँ कि सभी पार्टियों में सांप्रदायिक भावना देखने को मिलती है।
कैंपस में यह जाहिर था। हमारे संगठन के अध्यक्ष ने जब यह प्रस्ताव रखा कि हमें
अपने एक दिन का वेतन राहत के लिए देना चाहिए तो “परिवार” के घटक के अध्यापकों ने
यह कह कर वेतन देने से मना कर दिया कि वे अपनी बस्तियों में चन्दा पहले ही दे चुके
हैं)। खैर, मैंने इन सज्जन की साफगोई को सराहा, किंतु मैं उनकी सहृदयता और क्रूरता
के इस मिश्रण से चकित था। रिकॉर्ड के लिए बता दूँ कि जैन-अग्गरवाल कमेटी द्वारा
(दीक्षित 1994; शर्मा 2002) आर.एस.एस. और भाजपा के कार्यकर्त्ता आगजनी करने, दंगे फैलाने, डकैती और
हत्याओं में संलिप्त पाये गये थे।
राजनीति और समाज
पर प्रभाव
भारत में साम्प्रदायिक हिंसा
का लम्बा इतिहास है। पाकिस्तान पर लिखी अपनी पुस्तक में बी.आर. अम्बेडकर (1946)
ने भारत में 1920-1940 के दौरान के
साम्प्रदायिक सम्बन्धों के लिये “गृह-युद्ध” शब्द का प्रयोग किया है। साम्प्रदायिक
विचारधारा इस धारणा पर आधारित है कि साझा धार्मिक आस्थाएँ, साझा राजनैतिक हितों को
जन्म देती हैं। जबकि सारतः वे एक निरंकुश प्रवृत्ति के तहत विचारों के बलात्
एकीकरण को बढ़ावा देती हैं। इसके विपरीत एक अन्य दृष्टि यह बताती है कि साझा
धार्मिक सम्बन्ध जरूरी नहीं कि साझा
दृष्टि या कट्टरपन्थी रुझानों को जन्म दे। गांधी, अब्दुल गफ़्फ़ार
खान, बाबा खड़क सिंह और मौलाना आजाद बहुत ही धार्मिक लोग थे।
उनकी राजनीति साझा राष्ट्र की थी, मुत्तहिद-कौमियत की थी। वे
अंहिसा के भी अनुयायी थे।
दूसरी ओर साम्प्रदायिकवृत्ति वालों का मुहावराहोगा- हिन्दू
पार्टी,मुस्लिम पार्टी, सिक्ख पार्टी
आदि। यहां धर्म पहचान का मुख्य चिह्न बन जाता है न कि बुद्धिमता के स्रोत का या
नैतिकता के मार्गदर्शक का। राजनीतिकृत धर्म लोगों को “चुने हुए” अर्थात् विशिष्ट
और अन्य अतः फालतू , मेंबांट कर देखता है। समावेशन और बहिष्कार की राजनीति सीधे
तौर पर नस्ली सफ़ाए और समूहीकृत आवासों (घेटोआइजेशन) की ओर बढ़ती है। मनोवैज्ञानिक
रूप से इसका संबंध बदला लेने और पुरूषों की इज्जत से जुड़ा है। छद्म धार्मिकता के
तौर पर यह शुद्धिकरण के भाव से
ग्रस्त है। और सांप्रदायिक विचारों के लिए सबसे ज्यादा खाद का काम तो भय और मानसिकआघात
करते हैं। विभाजन के दौरान हुए दंगें वस्तुतः भारतीय साम्प्रदायिकता के
जन-संहारात्मक स्वरूप का परिणाम हैं, जिनमें सभी समुदायों के
लोगों को मिलाकर लगभग 5 लाख मौतें हुईं और 1 करोड़ 40 लाख लोगों को जबरदस्ती पलायन करना पड़ा।[8]
1985 का राजीव- लोंगोवाल
समझौते के एक पक्ष (रंगनाथ मिश्रा आयोग के जाँच-क्षेत्र निर्धारण संबंधी) ने यह
जाहिर कर दिया कि भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिक धारणाएँ कितनी गहरी पैठी हुई
हैं। क्यों दोनों दल यह मान लेते हैं कि दिल्ली और अन्य शहरों में सिक्खों की
हत्याओं पर बात करने के लिए अकाली दल अधिकृत है? कानूनी दृष्टि से पीड़ित की
धार्मिक स्थिति, निरर्थक है। भारतीय नागरिकों की हत्या हुई थी,
पुलिस का काम था कि वे हत्यारों की पहचान करें और अपराधी को सजा दें।
चूंकि वे अपना काम नहीं कर रहे थे, इसलिये तथाकथित षड्यन्त्र
की जांच ध्यान बंटाने का तरीका भर था। इसी बीच मिश्रा आयोग ने कांग्रेसी नेताओं को
दोषमुक्त कर सारी जिम्मेदारी पुलिस पर डाल दी। 80 के दशक के अंतिम सालों से लेकर
सन् 2000 तक अनेक जाँचें बैठायी गईं।[9] जब कभी
ठोस सिफारिशें की गईं तो वे या तो सरकारी खींचातानी का शिकार हुईं अथवा सीधी
अवहेलना की। न्यायिक कार्यवाही को शुरू करने के लिए ही सालों-साल दबाव बनाना पड़ा
और अब तक बहुत कम लोगों को दण्ड मिला है। इस दौरान सामूहिक अपराधके मामलों में
न्याय-प्रक्रिया को रोकने की घटनाएँ बढ़ीं।इन सबसे यह धारणा पुष्ट हुई कि सरकारी
अफ़सरों-कर्मचारियों को सजा-वजा नहीं
मिलती, परिणामस्वरूप हिंसा दिन दुगनी-रात चौगुनी की दर से बढ़ी और यह स्थिति
लगातार जारी है।
साधारण जन आमतौर से पूर्वग्रहों
से भरे होते हैं और सहज ही कई भयानक काम कर देते हैं। गम्भीर संकट के समय राजनैतिक
नेतृत्व की यह जिम्मेदारी है कि वह विवेक बनाए रखे,न्यायायिक प्रक्रिया को
पारदर्शी तरीके से आगे बढ़ने दे और व्यक्ति के सम्मान की रक्षा करे। उन्हें
सामान्य पूर्वग्रहों को हवा नहीं देनी चाहिए बल्कि तार्किक रूप से भावनाओं के उबाल
को शान्त करने का उद्यम करना चाहिए। किन्तु 1984 के तुरन्त पहले और उसके बाद लम्बे समय तक भारत के राजनैतिक नेतृत्व नेसंयम
से नहीं काम लिया वे तो मानो आग से खेलते रहे। 1980 के दशक
के अन्तिम वर्षों में संघ “परिवार” ने बाबरी मस्जिद को जब्त करने और ध्वस्त करने
के अभियान को आरम्भ किया। इसके चलते भी 1990 और 1992 में कई मौतें हुईं, यह कोई रहस्य नहीं है कि 2002 की हिंसा इस अभियान से जुड़ी थी। (मुझे यह महत्त्वपूर्ण लगता है कि जो
हमें 2002 को बार-बार भूलने के लिये कहते है वे 1528 को सदा याद रखने के लिए भी कहते हैं।[10])सार
रूप में कहें तो1984 की घटनाओं ने भारतीय समाज के चौतरफा
अपराधीकरण को कई गुणा बढ़ा दिया।
विचाराधारात्मक कारकों का अध्ययन पक्षपातपूर्ण सरलीकरण की भूलों से बचाता है। कांग्रेस और भाजपा के बीच आरोप-प्रत्यारोप
के चलते हमारे मन में यह सहज सवाल तक नहीं कौंधता कि क्या कांग्रेस की आलोचना, उदारतावाद मात्र की अस्वीकृति है? क्या इसके निशाने
पर कांग्रेस है अथवा साझा राष्ट्रवाद की अवधारणा? एक विचार
पर अपने अधिकार का दावा करने वाले दल तथा स्वयं उस विचार में अन्तर है। समाज के
स्थायित्व के लिए क्या धर्म-आधारित राष्ट्रवाद एक उपाय बन सकता है? क्या कांग्रेस
के विरोधियों के लिये आवश्यक है कि वे (किसी भी प्रकार के) साम्प्रदायिक तत्त्वों से
हाथ मिलाएँ? क्या धर्म निरपेक्ष माँगें जैसे संघवाद (फ़ेडरलिज्म) और मानवाधिकारों
को साम्प्रदायिक वैमनस्य के साथ जोड़ दिया जाए? गांधी को
लेकर हमारा कोई भी आकलन हो, यह तो निर्विवाद है कि उन्होंने
साम्प्रदायिक राजनीति का विरोध किया और अपनी मृत्यु के दिन तक जनता के स्थानांतरण
को रोकने की कोशिश की।
साम्प्रदायिक राजनीति कांग्रेस का विरोध लग सकती है,
किन्तु 1984 इस बात का प्रमाण है कि कांग्रेस
में भी साम्प्रदायिक पूर्वग्रह मौजूद हैं।
साम्प्रदायिकता किसी पार्टी का विरोध नहीं है, जैसा कि कई
लोग मानते हैं।[11]
बल्कि साम्प्रदायिक राजनीति समावेशन और साझा राष्ट्रवाद के आदर्श की अस्वीकृति है।
हममें से जो लोग (आदर्शों और दलों के बीच के) इस भेद को देखने से इन्कार करते है वे वस्तुतः मूर्ख बनाए जा रहे हैं, पर इसे वे
स्वीकार नहीं करेंगे। यह सोचने की बात है कि 1985 के नवनिर्वाचित
लोक सभा में भाजपा को केवल दो सीटें मिली थीं क्योंकि हिन्दुत्व समर्थक मतदाता
कांग्रेस की ओर हो गये थे। इसलिये बावजूद इसके कि कुछ दल साम्प्रदायिकता फैलाने का
काम करते हों तो कुछ उसके साथ व्यावहारिक समझौते कर लेते हों, साम्प्रदायिकता को दलीय
सम्बद्धता से सीधे नहीं जोड़ा जा सकता।
लक्षण को ही मूल तत्त्व मानने
की बजाय बेहतर होगा कि हम प्रयास करें और देखें कि उसकी जड़ें क्या हैं। 1984 को 2002 के बरक्स रख देने का अर्थ है दोनों ही
मामलों में उत्तरदायित्व के महत्त्वपूर्ण सवालों को दरकिनार करना और आपराधिक न्याय
का क्षरण। (गुजरात में जिन कुछ अवसरों पर न्याय मिला उसमें सर्वोच्च न्यायालय के
हस्तक्षेप, यहाँ तक कि कई मामलों को राज्य से बाहर भेजने की बड़ी भूमिका रही है)।ये
हिंसा के प्रति हमारी उदासीनता का भी प्रतीक है। अनेक भारतीय यह नहीं मानते कि
सामूहिक अपराध में लिप्त पाए जाने पर किसी व्यक्ति को सरकारी पद संभालने से वंचित
रखा जाना चाहिए। वे “विकास” और न्याय में भेद करते हैं, यह भूलते हुए कि धर्म-निरपेक्ष
मूल्यों और न्यायपूर्ण शासन के बिना “विकास” उत्पीड़न पैदा करता है। यह अयाचित
नहीं कि हमारे यहाँ के पूंजीपतियों को “विकास का चीनी मॉडल” बेहद प्रिय है।
सोच-विचार
कुछ धर्मनिरपेक्षवादी यह मानते
हैं कि विज्ञान के विकास के साथ-साथ धर्म का प्रभाव क्रमशः धुंधला होता जाएगा। यह
कोरी कल्पना है, सिर्फ़ इसलिये नहीं कि विज्ञान और गणित नैतिक रूप से तटस्थ हैं,
बल्कि इसलिये भी कि मनुष्य का स्वभाव है ही है, अनुत्तरित प्रश्नों
को पूछते रहना। धर्म का क्षेत्र पूर्ण सत्य का क्षेत्र है। इसलिये वह अधिनायकवाद की ओर जाता है, किन्तु
यह चेतना का क्षेत्र भी है, जो मनुष्यप्रजाति के विचारशील
होने में इंगित होता है। हमें जिन्दगी के गूढ़ रहस्यों और विरोधाभासों को सुलझा लेने
की, एक ऐसे सरलीकृत उत्तर पा लेने की बेचैनी रहती है, जो हमारे तमाम अनुभवों को
अकेले एक भाव में केन्द्रित कर दे। हमारे समय में धर्म की इस विशेषता को
अधिनायकवादी राजनीति ने राष्ट्र राज्य के हित के लिए हथिया लिया है। विषय व्यापक
और जटिल है, किन्तु इस पर विचार करना जरूरी है।
1984 के बाद, मैंने साम्प्रदायिक राजनीति का गम्भीर अध्ययन आरम्भ किया। 1985 में मैंने एक शोध निबंध लिखा जो 1986 में प्रकाशित
हुआ। कई बातों के साथ मैंने धार्मिक परंपरा के क्षरण के प्रश्न पर भी विचार किया:
समय आ गया है जब
भारतीय धर्मनिरपेक्षता को साम्प्रदायिक रूप से परिभाषित इकाइयों के गणितीय जोड़ के
रूप में परिभाषित करना बन्द कर दिया जाए। यदि भिण्डरावाले ने गुरू नानक की जगह ले ली है,
यदि पाकिस्तान वास्तव में मुस्लिम समाज के लिये प्रतिमान है और यदि
विश्व हिन्दू परिषद्, शिव सेना और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ
की गतिविधियाँ हिन्दू पुनर्जागरण की द्योतक हैं.... तब तो बेहतर होगा कि हम मान
लें कि धार्मिक परम्परा की सड़ांध, ठीक कर्ज के बम अथवा
हथियारों की अंधी दौड़ की तरह हमारे समग्र सामाजिक संकट का एक हिस्सा है। वास्तविक
सांस्कृतिक और सामाजिक क्रान्ति के जीवनदायी रस से वंचित, भारतीय राष्ट्रवाद गोया
अपने ही विष से घुट रहा है। चूंकि (समाज का) नैतिक ताना-बाना इतना अधिक खंडित हो
गया है कि निर्दोषिता भी साम्प्रदायिक दृष्टि से देखी जाने लगी है। ऐसी स्थिति में नयी धर्मनिरपेक्षता की पहली नीति
मानव जीवन के प्रति मूलभूत सम्मान होना चाहिए। (सिमियन1986)
यहां मैं केवल यह बदलाव कर दे
रहा हूँ कि अब इस परिदृश्य को पूरे दक्षिण एशिया तक फैला रहा हूँ। उदाहरण स्वरूप कुछ बौद्ध भिक्षु और उनके संगठन
बर्मा और श्रीलंका में हिंसा भड़काने में संलग्न है। बर्मा का सायडवा विरथू (Saydaw
Wirathu) नामक एक शैतान भिक्षु हिंसा भड़काने के आरोप में नौ सालों
तक कैद रहा है और वह बर्मा का बिन लादेन कहलाता है। जिनकी रूचि हो वे2013में मिकतिला में हुई हिंसा पर शोध करेंजब
दसियों हजार रोहिनग्या मुसलमानों को उनके घरों से बाहर निकाला गया और उनमें से
लगभग 200 को मार दिया गया। नोबल पुरस्कार से सम्मानित ऑन्ग
सानसू की ने तो इस हिंसा की निन्दा नहीं
की, किन्तु भिक्षु सीं नीटा ने
सभी आस्थाओं से जुड़े लोगों के माध्यम से राहत कार्य किया, दंगों में भाग लेने
वाले धार्मिक नेताओं की भर्तस्ना की और मिकतिला के
इस “तंत्र-नियोजित हत्याकांड” की निंदा की (दी नान्यांग पोस्ट 2013)
श्रीलंका में उग्रवादी बोडू बल
सेना (बी बी एस) या बुद्धिस्ट ब्रिगेड को श्रीलंका के रक्षा सचिव और राष्ट्रपति के
भाई, गोटाभाया राजापक्षे, का समर्थन प्राप्त है। (पत्रकार लसन्था विक्रमातुंगे की हत्या में भी
सरकार संलिप्त थी।[12]) 2014 के जून महीने में अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करने वाले और बी
बी एस के आलोचक भिक्षु वाटराका विजिथा थेरो को पीट
पीट कर बेहोश कर दिया गया (बीबीसी न्यूज, 2014)। जनवरी 2014 में चुनावों के बाद बांग्लादेश का राजनैतिक नेतृत्व हिन्दुओं और बौद्धों
पर इस्लामिक उग्रवादियों के विद्वेष को रोकने में असफल रहा। इस क्रूरता ने लोगों
को 1971 में पाकिस्तान की सेना द्वारा की गई हत्याओं की याद
दिला दी। वहां के विरोधी दल-बांग्लादेश नेशनेलिस्ट पार्टी और इस हिंसा का नेतृत्व
करने वालेजमायते इस्लामी के संबंध किसी से छिपे नहीं हैं। (हबीब, 2014)
जहाँ तक पाकिस्तान का सम्बन्ध
है, यह याद रहे कि मानवाधिकार
कार्यकर्त्ता रशीद रहमान की मई 2014 में गोली मार कर हत्या
इसीलिए कर दी गई थी क्योंकि वे ईश निन्दा के आरोपी, विश्वविद्यालय में अध्यापक ज़ुनेद
हाफिज़ की वकालत कर रहे थे। ज़ुनैद 2011 से ही जेल में सड़
रहे हैं। पंजाब के गर्वनर सलमान तासीर की हत्या उनके ही अंगरक्षक ने इसलिए कर दी,
क्योंकि वे ईश निन्दा के नियमों में बदलाव की वकालत कर रहे थे और ईंट-भट्टे
में मजदूरी कर रही दलित इसाई स्त्री और माँ आसिया बीवी, जिसे 2010 में पैगम्बर के असम्मान के आरोप में जेल भेज दिया गया था, के प्रति
सहानुभूति रखते थे। महज आरोप के आधार पर आसिया को सजा सुनाई गई और लाहौर उच्च
न्यायालय ने इस सजा को बरकरार रखा। बिना किसी सुनवाई के ही उसे मौत की सजा दे दी
गई। संक्षेप में, परमाणु शक्ति सम्पन्न राज्य की न्यायिक
व्यवस्था, एक असहाय व्यक्ति को, सही प्रक्रिया के तहत् न्याय भी नहीं दिला सकी।
इस्लामी उग्रवाद अपने ही विनाश
के पथ पर चल पड़ा है। पाकिस्तान के नोबल पुरस्कार विजेता अबदुस्सलाम की स्मृतियाँ मिटा
दी गई हैं, यहाँ तक कि उनके कब्र को भी अपवित्र किया गया क्योंकि वे अहमदिया थे।
बांग्लादेश में नोबल पुरस्कार विजेता मुहम्मद यूनुस की तो सरकारी तौर पर गैर
इस्लामी कह कर निंदा की गई क्योंकि उन्होंने यूगांडा में समलिंगी समुदाय के अधिकारों
का समर्थन किया। भारत में, धर्मान्ध
नियमित रूप से तसलीमा नसरीन का सर काटने की, मुस्लिम युवाओं को धर्म युद्ध के लिये
संगठित होने की और बांग्लादेशी युद्ध-अपराधियों को बचाने की बात करते हैं (चटर्जी 2013,
बांग्लादेश इनडिपेन्डेंट न्यूज नेटवर्क 2013)।
मैं यह विश्वास करना चाहता हूँकि
भारत के ज्यादातर मुसलमान शान्तिपूर्वक
अपना जीवन व्यतीत करना चाहते हैं, न कि रुश्दी और तसलीमा के कारण निरन्तर क्रुद्ध
रहना। फिर भी कई राजनेता यह मानते हैं कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है,
संकुचित दिमाग वाले पुरातनवादी मुसलमानों को छूटें देना। यह दरअसल इस
गलत धारणा पर आधारित है कि कुछ गिने चुने आक्रामक उलेमाओं पर सारे समुदाय की
जिम्मेदारी है। हालत यह हो गई है कि सभी आस्थाओं के स्वनियुक्त रक्षकों, इसमें
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा प्रायोजित शिक्षा-शास्त्री भी हैं, के लिए “आहत न
किए जाने का अधिकार” की एक काल्पनिक स्थिति रच ली गई है, जिसके चलते आहत भावनाओं
का गोया पिटारा खुल गया है। यदि इस्लाम को आसिया बीवी, मुहम्मद
यूनुस, अबदुस्सलाम, तसलीमा नसरीन,
राशिद रहमान और ज़ुनैद हाफिज़ से खतरा है तो धार्मिक आस्था के
स्वभाव एवं उसके उद्देश्य पर ही सवाल उठाने की आवश्यकता है।
1984
आइए, अब संक्षेप में 1984 की घटनाओं को दोहराएँ। नीचे हरतोष सिंह बाल (2012) के
निबन्ध का एक अंश उद्धृत हैः
सबसे पहले तो, पंजाब
के बाहर रह रहे अनेक भारतीयों को यह याद दिलाने की आवश्यकता है कि भिण्डराँवालेही वह
आदमी है जिसके कारण आपरेशन ब्ल्यू स्टार हुआ। इन घटनाओं के लिये केवल उसे ही दोष
नहीं दिया जा सकता। हालात ऐसे न होते अगर इंदिरा गांधी ने आपात् काल का विरोध करने
के कारण अकालियों से चिढ़ कर भिण्डराँवाले को, अकालतख्तपर कब्जे के लिए, अकालियों
को चुनौती देने के लिये प्रोत्साहित न किया होता। उन्हें पता लग गया कि उस व्यक्ति
को आसानी से नियन्त्रित नहीं किया जा सकता क्योंकि जल्दी ही वह अपनी मनमानी करने
लगा... भिण्डराँवाले विचारक नहीं था। किसी भी जटिल समस्या पर उसका अपना कोई सुविचारित
दृष्टिकोण नहीं था, पर
वह कोई भी ऐसी बात कह सकता था, जिससे अकालियों को अपना प्रभावक्षेत्र खोता दिखता
था और वह वो काम भी कर सकता था, जो अकालियों ने नहीं किया, मसलन राजनैतिक
उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये हिंसा का प्रयोग। उसके इशारे पर हत्या करने
वाले सुरेन्द्र सिंह सोधी ने ऐसे कई लोगों
की हत्याएँ कीं, जिन्होंने उसकी नाराज़गी
मोल ली थी। उसने राजनीति में भी हस्तक्षेप किया। एक समय अकालियों के खिलाफ खड़े
कांग्रेस के उम्मीदवार को खुला समर्थन देकर और उसके बाद अपने उम्मीदवारों को शिरोमणि
गुरूद्वारा प्रबन्धक समिति (एस जी पी सी) के चुनावों में खड़ा करके..पर इसमें उसे
वांछित सफलता नहीं मिली। वह ऐसाआतंकवादी था, जिसने अपने दुश्मनों को,चाहे वे
हिन्दू हों या सिक्ख डराने और हत्या करने के लिए किसी भी तरह के हिंसा से गुरेज
नहीं किया, एक ऐसा आदमी जिसे सिक्ख समुदाय में लोकप्रिय समर्थन प्राप्त नहीं था...
वह भारतीय राज्य की मूर्खताओं के चलते सन्त पद पा गया।
और यह राजदीप सरदेसाई (2013)
का कथन हैः
चाहे आप अहमदाबाद
के बाहरी हिस्सों से सिटीजन नगर में 2002 के दंगों से पीड़ित लोगों से मिलने जाएँ, जो कूड़ों के ढेर के पास रह रहे
हों, या तिलक विहार में गंदगी से लबलबाते नाले के करीब, जहां
1984 के सिक्ख विरोधी दंगों की विधवाएँ रह रही हों अथवा
जम्मू में उन अस्थायी घरों में जहाँ कश्मीरी पंडितों के परिवार रह रहे हैं, खास
बात यह देखने में आती है कि इन सभी की स्थितियाँ इस बात की गवाह हैं कि भारतीय
राज्य व्यवस्था नियमों-कानूनों के अनुपालन में सर्वथा असफल सिद्ध हुई है। यह
इसलिये नहीं है कि वे मुसलमान हैं या सिक्ख हैंअथवा हिन्दू, बल्कि
यह उस समाज के बारे में है जो अपने ही नागरिकों की रक्षा नहीं करता है और न ही
उन्हें न्याय प्रदान कर पाता है।
ये दोनों टिप्पणियाँ इस विकट समय
का सार प्रस्तुत करती हैं और इस अप्रिय सत्य को स्पष्ट ढंग से व्यक्त करने के लिए मैं
इन पत्रकारों का सम्मान करता हूँ।उन्होंने जो कहा, वह हम सबके लिये प्रासंगिक है।
भिण्डराँवाले की शुरुआती सामाजिक सुधार की गतिविधियाँ शीघ्र ही आतंकी व्यवहार में
बदल गईं। उसके अराजनैतिक होने के दावों के बावजूद, न तो उसका राजनैतिक हस्तक्षेप ही और न ही उसके कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं
से सम्पर्क, कोई रहस्य थे। 1978 के पश्चात् उसके धार्मिक
प्रवचन और उसके सहयोगियों की गतिविधियाँ अत्यधिक हिंसक और असंयमित थीं।[13]1980 में उसने निरंकारी नेता गुरूवचन सिंह के हत्यारे की प्रंशसा की और अपने
विरोधियों, जो अधिकतर सिक्ख ही थे, को खत्म कर देने की क्षमता पर ढींगे हाँकीं।
उसने लोगों को बाँट दिया, किन्तु यह गम्भीर मसला है कि अभी
भी सिक्ख समुदाय का एक हिस्सा उसे अत्यधिक महत्त्व देते हुए, उसे धार्मिक नेता
मानता है।
सिक्खों के इतिहास की सबसे
मर्मस्पर्शी कथाओं में से एक मलेरकोटला की कहानी है। इस राज्य को गुरू गोविन्द
सिंह, जिनके दो बेटों को वहाँ के शासक
ने सरहिंद के गवर्नर द्वारा ईंटों की चुनाई से बचाने का प्रयास किया था, का आर्शीवाद
है। मलेरकोटला के नवाब शेर मोहम्मद खान को
जब सरहिन्द के गर्वनर के आदेश की खबर मिली, तब उन्होंने यह कह कर उसका जबरदस्त
विरोध किया कि यह इस्लाम के सिद्धान्तों के विरूद्ध है। गुरू ने उनके घर को
आर्शीवाद दिया कि “इसकी जड़े हमेशा हरी-भरी रहें।” विभाजन के दंगों के समय जब
भागते हुए मुसलमानों को यहाँ शरण मिल जाती तो मलेरकोटला गोया उनके लिए शान्ति का
स्वर्ग हो जाता था। यह किवदन्ती धार्मिक आस्थाओं की उस शक्ति को
जागृत करती है, जो प्रेम और करुणा प्रेरित करते हैं। ऐसी परम्परा को अपने देव समूह
में घृणा फैलाने वाले को क्योंकर शामिल करना चाहिए?
दिल्ली ही वह जगह है, जहाँ महात्मा गांधी की हत्या वी.डी.
सावरकर के एक अनुयायी ने उनके मुस्लिम-प्रेम के कारण कर दी थी। जनवरी 1948 में गांधी का अन्तिम उपवास मुसलमानों को कुतुबुद्दीन बख्तियार चिश्ती की
दरगाह को लौटाने के लिये था। उनकी प्रेरणा से 18 जनवरी 1948 को तैयार की गई दिल्ली
घोषणा, साम्प्रदायिक एकता को बनाये रखने के आग्रह के साथ साथ कब्जे में लिये गये
धार्मिक स्थानों को लौटाने तथा अपनी जगह छोड़ कर भाग गये लोगों को वापस उन्हीं
घरों में बसाने से संबंधित थी।[14] यह
घृणा के उबाल के बीच प्यार की जीत थी। 18 जनवरी को गांधी द्वारा
दिए गए भाषण का एक अंश इस प्रकार हैः
भारत की राजधानी दिल्ली
देश का दिल है। यहाँ सारे भारत से आए नेता एकत्रित हुए हैं। लोग जानवर बन गये थे।
किन्तु यहाँ जो लोग इकट्ठा हुए हैं, वे समाज के सर्वश्रेष्ठ लोग हैं, और वे यदि सारे भारत को यह नहीं समझा सकते कि हिन्दू, मुसलमान और अन्य धर्मों को मानने वाले सभी भाई की तरह हैं, तो यह दोनों देशों के लिये ही
अच्छा शकुन नहीं है। यदि हम आपस में एक दूसरे से लड़ते रहे तो भारत का क्या भविष्य
होगा?.. हम ऐसे कदम न उठाएँ कि भविष्य में हमें पछताना पड़े। वर्तमान स्थिति हमसे
सर्वोच्च स्तर के साहस की मांग करती है।[15]
कांग्रेस पार्टी आखिर कैसे इस
हद तक नीचे गिर गई कि उसके वरिष्ठ नेताओं ने निर्दोषों की हत्या का संचालन किया?
क्या बाद के दिनों के उनके व्यवहार से विश्वास पैदा होता है? क्या कांग्रेस
के कार्यकर्ताओं ने 1948 की घोषणा के बारे में सुना है?
संयोग ही कहें कि कुछ लोगों ने गांधी की हत्या पर खुशियाँ मनाईं। सरदार
पटेल ने यह पता लगने पर कि संघ के लोगों ने गांधी की हत्या पर खुशी मनाई और
मिठाईयाँ बांटी, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेता गोलवालकर को डाँट लगायी (गोयल 2000)
। गांधी की जीवनी लिखते हुए एक लेखक ने लिखाः
अनेक अधिकारियों
की नजर में वे एक बूढ़े आदमी भर थे, जिनकी उपयोगिता खत्म हो चुकी थी और उनके मर जाने से कोई नुकसान नहीं होने
वाला था।चाहें भूल से, चाहे उदासीनता से, या पहचान-रहित चेहरों की सोची-विचारीइच्छा से उनकी हत्या कर दी गई। यह एक नई
तरह की अनुमोदन प्राप्त हत्या है और भविष्य में इनकी संख्या बढ़ेगी (पायन 2003:
647)[16]
इस
मिली भगत की प्रतिध्वनियाँ, 26 फरवरी 2003
को तब गूंजी जब लोकसभा में वी. डी.
सावरकर के चित्र का अनावरण, भारत के सर्वोच्च अधिकारियों ने किया (नौरिया 2003)। हमारे प्रतिनिधियों ने सम्मानित करने के लिए गांधी हत्या के मुख्य कारक-तत्त्वको
चुना। यह भिण्डराँवाले के महिमा-मण्डन से किस तरह अलग है?
जब
हम यह जान लेते हैं कि स्वतन्त्र भारत की आपराधिक न्याय व्यवस्था का आरम्भ गांधी
को ही न्याय न दिला पाने से हुआ है, तब उसके निरंतर गिरावट पर हमें हैरान नहीं
होना चाहिए। यदि धार्मिक आस्था को योगी आदित्यनाथ और प्रवीण तोगड़िया जैसे लोगों
द्वारा ही कुचला जाना है, यदि हिन्दुत्व को जीवन्त परम्परा बने रहने के लिये आर.एस.एस.,
वी.एच.पी. या बजरंग दल का संरक्षण चाहिये तो उसका रास्ता आंतरिक
कलहों से भरा हुआ है। एक महान धार्मिक परम्परा को बौद्धिक एवं नैतिक रूप से बौनों
की सम्पत्ति नहीं बनने दिया जा सकता। अपनी परंपरा के प्रति गर्व रखना और बात है पर
इसका अर्थ यह नहीं कि धार्मिक-भक्ति और आत्म-भक्ति को गड्ड-मड्ड कर दिया जाए। आत्म-प्रशंसा
में लगातार डूबे रहना तो कतई भौंडी बात है। प्रशंसा तो तभी अच्छी लगती है जब दूसरे करें। इन
समूहों ने अपने आपको युद्धोन्माद और ‘दूसरे’ विचारों के प्रति घृणा के लिये इस हद
तक प्रशिक्षित कर लिया है कि इनके लिए राष्ट्रवाद का अर्थ ही हो गया है “दूसरे से
डर और घृणा”। वे बच्चों के मन में ऐसे भाव बिठाने का अनवरत प्रयास करते हैं। वे
अपने ही अनेक देशवासियों को शत्रु के रूप में चित्रित करते हैं और इस तरह से “भीतर
पैठे शत्रुओं वाली” अपनी भविष्यवाणियों को सच बनाते हैं।
सभी
के लिए समान अपराध-संहिता
भारत
के मध्यमार्ग के अवसान को केवल संयमित भाषा और अहिंसा से ही रोका जा सकता है। बहुत
कुछ हिंदुओं के आचरण पर निर्भर है। मेरा अनुमान है, कि वे इस बात को सहज रूप से
जानते हैं क्योंकि ऐसे संगठनों के सारे प्रयासों के बावजूद अधिकांश हिन्दू धार्मिक
अतिवाद से दूर हैं।
यदि भारत की विभिन्न सरकारें, हिंसा
और अराजकता का प्रतिकार केवल माओवादी हिंसा के संदर्भ में करती हैं, हर हालत में
नहीं और न ही सैद्धांतिक धरातल पर इसे अस्वीकार करती हैं, तो उनका यह पाखंड अंततः
राज्य की संस्थाओं को ही कमजोर करेगा। समय आ गया है, जबकि भारतीय राज्य को कभी कभी
पकड़े जाने वाले छोटे अपराधियों और कभी न पकड़ में आने वाले बड़े और ताकतवर
सरगनाओं के लिए कानून का अनुपालन समान भाव
से, बिना किसी भेदभाव के करना चाहिए। जो
लोग समान नागरिक संहिता के लिये आन्दोलन करते हैं, वे स्वयं से पूछें कि क्या भारत में समान आपराधिक संहिता है?
कुछ
और भी कहा जाना चाहिए। अनुमोदित हत्याएँ और आम राय से किए गए जनसंहार को
पर्यायवाची मानना चाहिए। चाहे एक व्यक्ति की हत्या हो या हजारों की,
हत्या के पक्ष में मौन
सहमति, साम्प्रदायिक विचारधारा की सबसे खतरनाक विरासत है।
निःसंदेह यह विरासत हमें इतिहास से प्राप्त हुई है। किन्तु क्या हमने अपने इतिहास
से मुकाबला करने और उस पर विजय पाने की क्षमता दिखाई है? क्या हमारे नेताओं में
कुशल राजनीतिज्ञ सरीखे गुण आ पाए? एक बार देखी गई हिंसा एक व्यक्ति को जीवन भर के
लिए झकझोर कर रख देती है। हम उस स्थिति की
कल्पना कर सकते हैं कि यदि (हिंसा) झेलने वाला बच्चा है, तो क्या
होगा। यदि किसी समाज को हिंसा और अन्याय के चक्र से बार-बार गुजरना पड़े तो क्या
होगा? यदि हजारों इसका अनुभव करें? तब हिंसा
आत्मा में प्रवेश कर जाती है।
यह
पाकिस्तान के पत्रकार ने पिछले वर्ष लिखा है:
युद्ध
एक त्रासदी है, किन्तु यदि एक समाज, जो हर तरफ़
से बिना किसी उद्देश्य के और बिना किसी पछतावे के, अपने से ही युद्धरत है तो यह
स्थिति त्रासदी से भी बदतर है, यह तो सम्पूर्ण विनाश है...
हमारा समाज अपनी खुद की धार्मिक विभिन्नताओं से युद्धरत है। वह तो आत्मविघटन से
अविश्वास की ओर बढ़ता दीख रहा है ( हैदर 2013)।
हमें
देखना चाहिए कि क्या यह टिप्पणी भारत पर भी लागू हो रही है।
क्या
हमारे धार्मिक नेताओं ने सभी धार्मिक आस्थाओं के अनुयायियों से संवाद करने का
प्रयत्न किया है?
जबलोगों को नैतिक दिशा-निर्देश की सर्वाधिक आवश्यकता थी, तोक्या वे
हिंसा और क्रूरता के विरूद्ध बोले? यदि ऐसा हुआ है तो मैं स्वीकार करता हूं कि मुझसे
कुछ छूट गया है। 1984 के बाद के वर्षों में (और यह मैं अपने
बारे में बता रहा हूँ कि) मुझे किसी भी ऐसे धार्मिक नेता से, जिनके भी बारे में
मैं सोच सकता हूँ, कोई राहत नहीं मिली, जैसी कि मुझे गुरूशरण सिंह, सत्यपाल डांग और वी.पी. सिंह के शब्दों और कार्यों से मिली। साम्प्रदायिकता
विरोधी आन्दोलन के दिनों में मुझे सभी धर्मों के भीतर ऐसे कई बड़े दिल वालों से
मिलने का गौरव प्राप्त हुआ, जो कहने को तो साधारण लोग थे, पर जिन्होंने मानवता में
मेरी आस्था को लौटाने में सहायता की।[17]
यह
खेद का विषय है कि इन साधारण लोगों के उच्च प्रयासों के बावजूद,
आज इस देश के ऊँचे हलकों में स्वयं “धर्म निरपेक्षता” शब्द घृणित बन गया है। प्रेम और सहअस्तित्व
के संदेश गृह युद्ध के शोर में डूब जाते हैं। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो अधिकांश
धार्मिक नेता तो संकुचित मानसिकता और अधिक से अधिक सम्पत्ति और सत्ता को प्राप्त
करने की होड़ में लगे हुए हैं। ऐसे लोगों को गम्भीरता से लेने का अर्थ ही है कि
उनके भक्त भ्रम की स्थिति में हैं। यदि वे (धार्मिक नेता) इसी मार्ग पर चलते रहे
तो उनके धर्म में कुछ भी शेष नहीं रहेगा सिवाय विचारहीन धार्मिक मान्यताओं और नैतिक
खोखलेपन के।
यह
कहने का मेरा आशय कतई नहीं है कि हम झूठ की कैद के जाल में बंधक होने को अभिशप्त
हो गए हैं। भाषा के लिए सच्चाई का होना जरूरी है। इसके अलावा हम मनुष्यों को अपने
अतीत को भी जानने-बूझने को जरूरत रहती है। नई पीढ़ी प्रश्न पूछती है और बदले में उन्हें
स्मृतियाँ दे दी जाती हैं, और अँधकार में बोई
चीजें कभी न कभी तो प्रकाश पा ही जाएँगी। किन्तु यह लम्बी और कठिन यात्रा है। यह
कठिन है क्योंकि अपराध में सामूहिक मिलीभगत अंततः भावना के धरातल पर ही सही, सांप्रदायिक
विचारधारा को स्थायी बनाती है और आत्मछल की स्थिति पैदा करती है, खासकर तब जबकि
आपराधिक व्यवहार सामान्यीकृत हो जाए।
हमारे
आसपास ऐसे ही हालात बन गए हैं। चाहे वह आपराधिक न्याय के बारे में हो,
या “विकास” की कीमत अथवा जलवायु परिवर्तन के विषय में, समाज के
ताकतवरों को सच्चाई को ढंकने की आवश्यकता हो रही है। न्याय और सामाजिक प्रगति के
लिये संघर्ष, अतीत पर ईमानदार संवाद एवं अभिलेखन पर निर्भर है। इस प्रकार के संवाद
के अभाव में हम औरवेलियन भूलभूलैया में पड़े रह जायेंगे। 1984 वह बिन्दु है जहाँ भारतीय समाज दुष्प्रचार, आत्म भ्रम और पाखंड
में डूब गया था। वर्तमान में उन गहराईयों से ऊपर उठने के कोई लक्षण नहीं दिख रहे।
हम यह स्वीकार कर लें कि साम्प्रदायिक अस्मिता के वैज्ञानिकों ने ऐसी मशीन खोज
निकाली है जो हर समय गतिवान है और जिसे मानव-विचार और भावनाओं का ईंधन मिल रहा है।
जब तक हम चाहेंगे, यह मशीन लगातार घूमती रहेगी (कट्टरवादी हिंसा की आवर्तीय वापसी ही
भारतीय क्रान्ति का एकमात्र गोचर रूप है)। केवल सत्य के प्रति प्रतिबद्धता ही इसे
रोक सकती है।
निष्कर्ष
1949
में ज्योर्ज औरवेल ने मानवता द्वारा सामना किये जाने वाले
अधिनायकवादी दुःस्वप्न के बारे में लिखा और अपनी इस पुस्तक का शीर्षक “1984” रखा। उसकी दुःकाल्पनिक खोजों में से एक नई व्यवस्था से संबंधित काल्पनिक
पर्चा भी है । इस नई व्यवस्था में, प्रत्येक दिन का आरम्भ दो
मिनिट के घृणापूर्ण प्रार्थना से होता है। न्यूज-स्पीक वहाँ की आधिकारिक भाषा है।
उसकी एक अवधारणा- क्राइम स्टॉप, या संरक्षण के लिए मूर्खता है। उसके बाद है डबल-स्पीक
अर्थात् “काले को सफेद मानने की क्षमता अथवा इससे भी अधिक यह जानना कि काला सफेद
है, और यह भूल जाना कि उसने कभी इसके विपरीत माना था।” इसके
लिए जरूरी है कि अतीत को बार-बार बदला जाए। “सत्य-मंत्रालय द्वारा अतीत को रोज-रोज
झूठलाने का काम शासनतंत्र की स्थिरता के लिये उसी तरह आवश्यक है, जैसे कि प्रेम मंत्रालय द्वारा किया जा रहा दमन और जासूसी का काम।” आगे वे
कहते हैं-
पूरी
ईमानदारी से उद्देश्य को बरकरार रखते हुए, पार्टी का अनिवार्य कार्य सचेत रूप से छल
का प्रयोग है। जानबूझ कर झूठ बोला जाए,
और उसपर सचमुच विश्वास किया जाए, जो भी तथ्य
असुविधाजनक हैं, उन्हें भुला दिया जाए, तथा...जितने समय के लिए भी उसकी आवश्यकता हो तो,उसे शून्य से वापस ले आया
जाए, वस्तुनिष्ठ यथार्थ के अस्तित्व को न स्वीकारा जाए, और इस
सारे समय उस यथार्थ पर निगाह रखी जाए, जिसे अस्वीकार किया
गया- यह सब अपरिहार्य रूप से आवश्यक है। डबलथिंक शब्द का प्रयोग करते हुए जरूरी है
कि डबलथिंक बना रहा जाए। क्योंकि शब्द के प्रयोग के साथ ही इसे स्वीकारना होगा कि
वह यथार्थ को तोड़-मरोड रहा है, तो फिर से डबलथिंक के सहारे
वह इस ज्ञान को मिटा देता है और यह वह अनन्त काल तक करेगा, झूठ
हमेशा सत्य से एक कदम आगे होगा।
पर्चे
में युद्ध के बारे में बताया गया है:
इससे
कोई फर्क नहीं पड़ता कि युद्ध वास्तव में हो रहा है या नहीं,
तथा चूंकि निर्णायक विजय सम्भव नहीं है, इसलिये
कोई फर्क नहीं पड़ता कि युद्ध उचित है या अनुचित। जरूरत बस इस बात की है कि युद्ध
की स्थिति बनी रहे।... युद्ध, अब देखेंगे कि वह विशुद्ध आन्तरिक मामला बन गया है।
... अतीत में, प्रत्येक देश का शासक समूह... एक-दूसरे के
विरूद्ध लड़ाई करता था, और विजेता हमेशा पराजित को लूट लेता था। हमारे अपने दिनों
में वे एक दूसरे के विरूद्ध कतई नहीं लड़ते। प्रत्येक शासक समूह द्वारा युद्ध अपने
नागरिकों के खिलाफ लड़ा जा रहा है और युद्ध का उद्देश्य भूमि की रक्षा या और भूमि
को प्राप्त करना नहीं वरन् समाज की संरचना को बचाये रखना है। अतः‘युद्ध’ शब्दमात्र ही भ्रामक हो गया है। यह कहना संभवतः
सही होगा कि नैरन्तर्य के चलते युद्ध का अब अस्तित्व ही नहीं बचा।[18]
आधुनिक
संघर्ष के बारे में यही सच है कि युद्ध अब जीतने के लिये नहीं लड़े जाते,
बल्कि उन्हें निरन्तर जारी रखने के उद्देश्य से लड़ा जाता है । जिसे
हम साम्प्रदायिकता कहते हैं, उसके बारे में भी यही सही है। औपनिवेशिक भारत का गृह
युद्ध उत्तर औपनिवेशिक अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध बन गया। इसके बावजूद आज तक प्रत्येक
उत्तराधिकारी राज्य में गृह-युद्ध जारी है। हमारी स्थिति ऐसी है कि हम वास्तव में
अपने झूठ पर विश्वास करते हैं, इसके लिये आवश्यक है कि झूठ सत्य से हमेशा एक कदम
आगे रहे। हमें प्रेम करने के लिए एक अजेय बिग ब्रदर – “होर्डिंग पर लगा चेहरा”
चाहिए। हममें से बहुत से लोग अब असत्य और अर्द्धसत्य के आदी हो चुके हैं – बातचीत अब
खंडन-मंडन करने के लिए रह गए हैं। कम ही लोग अब सुनना, पढ़ना
सोचना और विचारना चाहते हैं। हमारे इर्द-गिर्द शौर्य मिथकों से संपन्न सामाजिक रूप
से मनोविकृत रोगी और उन्मादी अपराधी रहते हैं, जिनकी सत्ता लोलुपता ने वातावरण को
जहरीला कर दिया है। ये बीमार लोग उस गृह-युद्ध को, जिसे इन्होंने आरम्भ किया,
जीतना नहीं चाहते (और अफसोस है कि इस कार्य में साधारण नागरिक इनकी मदद करते हैं)।
बल्कि, वे तो इस स्थिति को स्थायी तौर पर बनाए रखना चाहते हैं। यह तो हम पर निर्भर
है कि हम अन्यायपूर्ण उत्पात को बिना किसी चुनौती के जारी रखने की अनुमति देना
चाहते हैं या नहीं।
हाँ,
1984
भारत का अतुलनीय औरवेलियन वर्ष था। आखिरकार ज्योर्ज भारत में ही
जन्मे थे।
रोज
ब रोज तमाम सर्दियों में
हमने
खुद को मजबूत किया अवसाद में जीने के लिये
तूफ़ान
और तुषार भरी इस दुनिया में
-
वैलेस स्टीवेन्स
[1] इन पहलुओं पर तीन पुस्तकों में विस्तार से
विचार किया गया है-
मुखौटी
और कोठारी (1984), चक्रवर्ती और हस्कर (1987), मिट्टा और फुल्का(2007)।
[2] अफ़जल गुरु को मृत्यु-दंड देने संबंधी सुप्रीमकोर्ट के फैसले से,दिनांक 4 अगस्त 2005.
[3] सज्जन कुमार साढ़े आठ लाख से अधिक वोटों से
जीते थे (मिट्टा और फुल्का, 2007:73)
[4] गाँधी
मय(आगे से गांवाँ)खंड90, पृ541, गाँधी हेरिटेज़ पोर्टल (https://www.gandhiheritageportal.org/the-collected-works-of-mahatma-gandhi).
[5] भारत में निजी सेनाओं के राजनीतिक निहितार्थ
संबंधी मेरे तर्कों को “अ हार्ड रेन फ़ॉलिंग: ऑन द डेथ ऑफ़ टी पी चंद्रशेखरण ऐंड रिलेटेड
मैटर्स (ई पी डब्ल्यू, जून 2012)” (सिमियन 2012)
[6] एस वी ए के बारे में अधिक जानकारी यहाँ से
प्राप्त की जा सकती है:
“Dilip
Simeon’s blog: “
SampradayiktaVirodhiAndolan”,
http://dilipsimeon.blogspot.in/search/lable/Sampradayikta%20Virodhi%20Andolan
[7] मुझे दो लेख मिले हैं, जिनमें इस सुनवाई की चर्चा है, पर दोनों में से किसी में भीन्यायाधीष द्वारा
की गई इस सांप्रदायिक टिप्पणी का जिक्र नहीं है। किंतु मैंने सुना था, और मुझे यकीन है कि बाकियों ने भी सुना ही
होगा।
[8] ये संख्याएँ अनुमान के तौर पर हैं। देखें
सिमियन(2013ए)
[9] जाँच समितियों की सूची निम्नलिखित है: कपूर-मित्तल समिति, जैन-बैनर्जी समिति, पौट्टी- रोशा समिति, जैन-अग्गरवाल समिति, अहूजा समिति,ढिल्लों समिति, नरूला समिति और नानावती समिति
[10] 1528 वह वर्ष है, जब भारत में मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर
ने कथित तौर पर अयोध्या में एक राम मंदिर को तोड़ने का आदेश दिया था। यही घटना 1980 के दशक अंतिम वर्षों में आर एस एस/बी जे पी/बी एच पी द्वारा राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के तौर पर उठाई गई, जिसके चलते दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद तोड़ डाली गई।
[11] एक समझदार हिंदुत्व बुद्धिजीवी का मानना है कि
सांगठनिक धरातल 1984
के
चुनाव कांग्रेस पार्ठी ने जीता था, पर वह जीत बी जे पी विचारधारा की जीत थी (सिंह 2010:30)
[12] “अंततः मुझे जब मारा जाएगा तो मुझे मारने वाली
सरकार होगी”- लसन्था विक्रेमातुंगे (बी बी सी समाचार,2009)
[13] भिंडराँवाला पर समकालीन सामग्री के लिए देखें, लाँबा(2004)
[14] 21 नवंबर 1947 की अपनी प्रार्थना सभा में गांधी ने दावा किया
था कि उनके पास दिल्ली की धवस्त की जा रहीं 137 मस्जिदों का ब्योरा था। देखें गां.वाँ, खंड90, पृ 79)
[15] गां.वाँ, खंड 90, पृ445. सात बिंदुओं वाला घोषणा पत्र पृ 444 पर है।
[16] जो पाठक गांधी जी कीहत्या के बारे में पढ़ना
चाहते हैं, वे 1969 की जीवनलाल कपूर रिपोर्ट देख सकते हैं। देखें
कपूर(1970)
[17] इनके बारे में संक्षेप में मेरे समीक्षात्मक
लेख “फ़ालतू लोग” (सिमियन 2013 ब) में पढ़ा जा सकता है।
[18] ज्योर्ज औरवेल, “ दि थ्योरी ऐंड प्रैक्टिस ऑफ़ ऑलिगार्किकल
कलेक्टिविज़्म”,
1984, अध्याय
9
(1949)
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