Apoorvanand- चुनाव दिल्ली का: बाज़ी मात नहीं!

जैसा कि ‘सफल’ आउटलेट (सब्जी की सरकारी दुकान) के वेंडर ने कहा, “अरे, हाल यह हो गया कि कुछ बोलने पर काटने को दौड़ते हैं इनके लोग! कल एक बड़े आदमी से थोड़ी बात क्या कह दी इनके साहब के बारे में, वे आपे से बाहर हो गए! थे तो बड़े जेंट्री के ही!”
वह इस माहौल से फिक्रमंद है, “क्या हम हम अपनी जुबान खोलने से भी गए! अभी तो कुछ महीने में यह हाल है, अगर पूरी ताकत हर जगह आ गई तो फिर जाने क्या गुल खिलाएंगे. इन्हें रोकना ज़रूरी है!”.. 
दिल्ली जो भारत का प्रतीक है और दिल्ली को दिल्ली बनाने वालों ने इस बार कमर कस ली लगती है. ये वे लोग हैं, बाहरी मेहमानों के सामने जिन्हें हुकूमत बुलाना नहीं चाहती. ये घर बनाते हैं, घरों में काम करते हैं, दफ्तरों में सबसे निचली पायदान पर हैं, जिनके नाम फैज़ ने अपनी नज़्म ‘इंतसाब’ (आज के नाम) लिखी थी.
जनतंत्र की पाठशाला जैसे खुली है. जनता खुले आँखों देख रही है सब कुछ सुन रही है.
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अब यह बात नई नहीं रह गई है. लेकिन है इतनी निराली भारतीय चुनावी राजनीति में कि दुहराने में हर्ज नहीं. दिल्ली के आम जन ने अपना पक्ष चुन लिया है. उसके बारे में खुलकर बोलने में उसे झिझक भी नहीं. आम आदमी पार्टी या झाडू छाप .अब वह किसी छलावे और भुलावे में आने को तैयार नहीं. उसे राजनीति में असभ्यता बुरी लगी है.
उसे यह बात नागवार गुज़री है, जैसा मेट्रो स्टेशन ले जाते ऑटो वाले ने कहा, “दूसरे देश से बुला लिया 26 जनवरी को और केजरीवाल को न्योता नहीं दिया! फिर कहा कि अगर निमंत्रण चाहिए तो हमारी पार्टी में आओ.”
वह बहुत पढ़ा-लिखा नहीं, लेकिन इतना उसे पता है कि आज तक भारतीय संसदीय राजनीति में यह बदतमीजी नहीं की गई.
आपका हो तो 13 दिन का भी होकर भूतपूर्व प्रधानमंत्री हो जाता और दूसरा 49 दिन के बाद भी भूतपूर्व मुख्यमंत्री के लायक शिष्टाचार का हक़दार नहीं!
और जैसा कि ‘सफल’ आउटलेट (सब्जी की सरकारी दुकान) के वेंडर ने कहा, “अरे, हाल यह हो गया कि कुछ बोलने पर काटने को दौड़ते हैं इनके लोग! कल एक बड़े आदमी से थोड़ी बात क्या कह दी इनके साहब के बारे में, वे आपे से बाहर हो गए! थे तो बड़े जेंट्री के ही!”
वह इस माहौल से फिक्रमंद है, “क्या हम हम अपनी जुबान खोलने से भी गए! अभी तो कुछ महीने में यह हाल है, अगर पूरी ताकत हर जगह आ गई तो फिर जाने क्या गुल खिलाएंगे. इन्हें रोकना ज़रूरी है!”
दिल्ली जो भारत का प्रतीक है और दिल्ली को दिल्ली बनाने वालों ने इस बार कमर कस ली लगती है.
ये वे लोग हैं, बाहरी मेहमानों के सामने जिन्हें हुकूमत बुलाना नहीं चाहती. ये घर बनाते हैं, घरों में काम करते हैं, दफ्तरों में सबसे निचली पायदान पर हैं, जिनके नाम फैज़ ने अपनी नज़्म ‘इंतसाब’ (आज के नाम) लिखी थी.
ऑटो वाले ने कहा, हमने तो साहब तय कर लिया. और ध्रुव नारायणजी के घर काम करने वाली ने कहा हमने तो पिछली बार भी झाडू पर ही बटन दबाया था, आप लोग ही नहीं देते!
दिल्ली के लोग देखकर हैरान हैं कि सत्ता इतनी जल्दी सर चढ़कर बोलने लगी है. पहली बार आज़ाद भारत में किसी प्रधान ने कहा है कि उसकी किस्मत पर देशवासी भरोसा करें. पहली बार कोई अपने विरोधियों को बदकिस्मत कह रहा है. यह नहीं चलेगा. चलना चाहिए नहीं. उससे जो सकेगा, वह करेगी, करेगा. और वह है, सात तारीख को बूथ पर सारे परिवार के साथ, दोस्तों के साथ जाना. ‘हम तो साहब, उस दिन घंटों लाइन में लगते हैं, वोट देते हैं. ऑटो, ठेला बंद कर देते हैं, थोड़ा खाते-पीते हैं, मस्ती करते हैं! आप लोगों का क्या, सर!’
जनतंत्र की पाठशाला जैसे खुली है. जनता खुले आँखों देख रही है सब कुछ सुन रही है.
बड़े पंडित जिस मुद्रा को डिकोड करने के लिए ‘डिस्कोर्स एनालिसिस’ के सिद्धांत का सहारा लेंगे, उन्हें वह सहज बुद्धि से डिकोड कर चुकी है.
वह हर विज्ञापन, प्रेस कांफ्रेंस की टाइमिंग की जांच कर रही है. और अपना फैसला कर रही है.
दिल्ली नौजवानों का शहर है.मुख़र्जी नगर हो या कटवारिया सराय या मुनीरका, नौजवान, पूरे देश से भरे पड़े हैं. किसका साथ देंगे वे?
परम्परा रही है, जवानी इन्साफ के साथ, ताकतवर के खिलाफ, कमजोरों के पक्ष में खड़ी हो जाती है. वह अहंकार, दंभ को बर्दाश्त नहीं करती, ठोकरों से चूर कर देती है.
तो दिल्ली में क्या जवानी का पक्ष अनिश्चित है? “ऐसा नहीं सर! छात्र उत्साहित हैं. क्या मुखर्जी नगर में लाठी चार्ज को वे भूल गए हैं?”
क्या वे भूल गए हैं कि इस सरकार के हिंदी-हिंदी करने के बाद भी इस बार यूपीएससी के पर्चे वैसी ही दांततोड़ हिंदी में आए थे?
गरीबों का अपना वजूद है और इज्जत भी. यह भी पहली बार किसी दल प्रमुख ने कहा है कि गरीब को तो बस मुफ्त की चीज़ का वादा करो, वह झांसे में आ जाता है.
तो क्या वह इतना गया गुजरा है? उसे अपने अलावा देश समाज की फिक्र नहीं! क्या वह पेट भरने और बच्चे पैदा करना भर जानता है?
क्या यह देश सिर्फ खाते-पीतों का, कोठियों और गाडीवालों का है? क्या वही सोच समझ कर फैसला करता है और गरीब नहीं?
यह अपमान और वह भी जनतंत्र के नाम पर! उसे यह भी खबर है कि यह वही पार्टी है जिसने कम पढ़े होने पर स्थानीय निकायों में चुनाव लड़ने पर राज्यों में रोक लगाना शुरू कर दिया है.
पढ़ने लिखने का गरीबी से कुछ तो रिश्ता है! तो क्या सत्ता पर पैसेवालों, यूनिवर्सिटी से निकले लोगों का कब्जा होगा? फिर भारतीय लोकतंत्र का पूरा नक्शा ही क्या बदल दिया जाएगा?
यह भी अजब बात थी कि राष्ट्र का प्रधानमंत्री यह कहे कि हमारी पार्टी को इसलिए सत्ता दो क्योंकि वह मेरे डर से काम करेगी.
क्या आज तक किसी नेता ने अपने खौफ की दुहाई दी थी? क्या यह जनतंत्र की जुबान है? क्या जनता को डराकर सत्ता हासिल की जाएगी?
तो दिल्ली का चुनाव एक तरह से खालिस जनतंत्र के सवाल पर लड़ा जा रहा है. जनतंत्र, यानी सत्ता को चुनौती देने की जगह का बचे रहना, आवाजों का बचे रहना.
जैसा कि एक दिल्लीवाले ने कहा, “एक शख्स तो है साहब, जिसने हिम्मत दिखाई. और जीवट भी. क्या हुआ जो थोड़ा नातर्जुबेकार है! क्या हुआ जो पिछली बार हड़बड़ाकर इस्तीफा दे दिया.
वे आगे कहते हैं कि यह तो कोई ऐसा बड़ा जुर्म नहीं. वो सीखने की बात करता है, गलती कबूल करता है, गलती के लिए माफी भी माँगता है.
टुकड़ों में सुनता हूँ लोगों को चर्चा करते हुए. एक पुराने वामपंथी कार्यकर्ता ने कहा, “यह क्या आरोप हुआ कि वह धरनेबाज है. जुलूस, धरना, प्रदर्शन के बिना राजनीति होती है कहीं? और क्या कुर्सी पर रहते इनके लोगों ने कभी कांग्रेस के खिलाफ कोई प्रदर्शन नहीं किया?”
जनतंत्र को जनता कई बार उसके सबसे नाजुक लम्हे में उबार लेती है. एक छठी इंद्रिय है शायद उसके पास. एक हद के बाद और ढील नहीं.
लगाम कस देनी होगी. दिल्ली की जीत, जनता को पता है, बस लगाम कसना भर है. और यह जंग अवाम ही लड़ रही है. मैक्समूलर मार्ग पर एक जत्था जा रहा है.
एक साहब सलाम करते हैं, “देखिए, ये कॉमरेड नागपुर से आए हैं, अपना टिकट लगा कर, निजामुद्दीन में टिके हैं. आम आदमी पार्टी के लिए काम करने को.”
देखता हूँ, वे खामोशी से आगे बढ़ रहे हैं. दिल्ली की जनता पर कोई  अहसान लादने नहीं आए. यहाँ के नतीजे से शायद पूरे हिन्दुस्तान में जुम्बिश आएगी.
जो लगे हैं, उनके चेहरों पर तनाव नहीं, एक रूहानी खुशी है, मानो कोई भला काम कर रहे हों.ऐसा काम जो अपना पुरस्कार खुद है.
जिसे करने के बाद कितनी थकान हो, झुंझलाहट नहीं होती, चैन की नींद आती है. तो अवाम ने दांव लगा दिया है.
पता नहीं, उसने फैज़ को सुना है या नहीं. लेकिन मुझे तो यह कुछ इश्क का मामला लगने लगा है, 

“गर बाजी इश्क की बाजी है, जो चाहो लगा दो डर कैसा,
जो जीत गए तो क्या कहना, हारे भी तो बाजी मात नहीं.”


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