अपूर्व जोशी - इस जनादेश की पहेली
संघ के अपने राजनीतिक उद्देश्य हैं, अपना एक तयशुदा एजेंडा है। यह समझा जाना और याद रखना बेहद आवश्यक है कि संघ भले ही लाख इनकार करे, लाख कहे कि वह एक सामाजिक या सांस्कृतिक संगठन है, लेकिन उसका भाजपा के आंतरिक मामलों में लगातार नियंत्रण करते रहना यह साबित करता है कि हिंदुत्व की अपनी अवधारणा को लागू करने के लिए भाजपा उसका राजनीतिक हथियार मात्र है।
जनसत्ता 19 मई, 2014 : भारतीय जनता पार्टी की केंद्र में सरकार बनने का मार्ग प्रशस्त हो गया है। जनता ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बड़ी आस्था जताते हुए भाजपा को पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में, दस बरस के अंतराल के बाद, ला बैठाया है। यह कई मायनों में आंखें खोलने वाला जनादेश है। खासकर उन सबके लिए, जिन्हें मोदी लहर को लेकर शंका थी। इसमें मुझ सरीखे भी शामिल हैं।
पंद्रह मई शाम छह बजे तक मैं अपने साथियों को शर्त लगाने के लिए उकसा रहा था कि भाजपा किसी भी तरह से दो सौ का आंकड़ा पार नहीं करने जा रही। मैं तो यहां तक शर्त बदने को तैयार था कि नरेंद्र मोदी देश के अगले प्रधानमंत्री नहीं होने जा रहे। अपने सहयोगी प्रेम भारद्वाज जरूर ताल ठोंक कर मैदान में उतरे। शर्त लगी कि अगर भाजपा अपने दम पर दो सौ का आंकड़ा पार कर लेती है तो पूरी टीम को मैं फिल्म दिखाऊंगा अन्यथा वे दिखाएंगे। मेरी करारी हार हुई, जिसका मुझे अफसोस नहीं। अफसोस इस बात का है कि क्योंकर जनता की नब्ज पहचानने में इतनी भारी भूल हो गई। ऐसी सोच-समझ अकेले मेरी ही नहीं थी। वरिष्ठ पत्रकार-मित्र विनोद अग्निहोत्री भी मेरी समझ से पूरा इत्तिफाक रखते आए थे। लगता है कि इसके पीछे हम जैसों का मोदी-विरोध है जो 2002 में गोधरा कांड के बाद गुजरात में भड़के दंगों के चलते शुरू हुआ।
दरअसल, इन चुनावी नतीजों की असली व्याख्या उन्मादी माहौल में न तो उचित होगी न व्यावहारिक। देश में हताशा का माहौल मनमोहन सिंह सरकार के कुशासन के चलते इतना गहरा पसरा कि अंगरेजी की सदियों पुरानी कहावत ‘आॅल दैट गिलिटर्स इज नॉट गोल्ड’ यानी हर वह चीज जो चमकती है सोना नहीं होती, को जनता ने भुला दिया। इस सच से आंखें मूंद ली कि यह चुनाव पूंजीपतियों के अकूत धन के सहारे लड़ा गया और नरेंद्र मोदी को ब्रांड बना कर परोसा गया, जिसे निराशा के गहरे सागर में गोते लगा रहे राष्ट्र ने लपक लिया। जब चारों तरफ बौने कद वालों की भीड़ हो तो औसत कद-काठी वाला भी लंबा और सुदर्शन प्रतीत होता है।
राहुल गांधी जैसे औसत से भी कम स्तर के नेतृत्व में चुनावी समर में उतरने वाली कांग्रेस का यह हश्र तो तब भी होता, अगर अरविंद केजरीवाल राजनीतिक परिपक्वता से दिल्ली की सरकार चलाते हुए इन चुनावों में अपनी पार्टी के चुनिंदा प्रत्याशियों को खड़ा करते। बगैर मजबूत संगठन के देश भर में चुनाव लड़वाना और दिल्ली की सत्ता को बचकाने अंदाज में छोड़ना उन्हें भारी पड़ गया, अन्यथा वे जनता के सामने एक पाक-साफ दामन वाले विकल्प के रूप में मौजूद रहते। तब शायद खरबों के सहारे जो छद्म रचा गया उसका नतीजा इतना विस्मयकारी, स्तब्धकारी न होता।
ईमानदार लोगों के साथ एक बड़ी समस्या उनकी वह समझ होती है जो उन्हें अपनी ही नजरों में सबसे श्रेष्ठ और सामने वाले को दागी दिखाने की तरफ ले जाती है। केजरीवाल और उनकी मंडली इसी सोच के चलते फिलहाल हाशिये पर पहुंच गई है। दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतरे। उन्हें खतरा अगर किसी से था तो केजरीवाल से। राहुल गांधी के नेतृत्व का बौनापन मोदी को कद््दावर बना गया। अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक नासमझी ने उनके कद को भले ही न घटाया हो, मोदी के कद को और ऊंचा उठाने का काम किया।
बहरहाल, यूपीए का दूसरा कार्यकाल जनता ने पूरी तरह खारिज कर दिया। इससे सीधा अर्थ यह निकलता है कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार का शासन, सुशासन नहीं था। यानी कुशासन था। इससे असहमत नहीं हुआ जा सकता कि लोकतंत्र में सुशासन या कुशासन को तय करने का अधिकार केवल जनता को है। जैसे 2009 में उसने यूपीए को दोबारा सत्ता में आने का मौका दिया, क्योंकि उसे मनमोहन सरकार का शासन, सुशासन लगा था। ठीक इसी प्रकार 2014 आते-आते, जिसके संकेत 2011 से ही मिलने लगे थे, यह सुशासन, कुशासन में बदल गया। नतीजा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत के साथ भाजपा की केंद्र में वापसी है। निश्चित तौर पर जनता ने मनमोहन सिंह सरकार में गहरे पसर चुके भ्रष्टाचार को इस जनादेश के जरिए नकारा है। देश के युवा वर्ग ने भी कांग्रेस को नकारते हुए नरेंद्र मोदी पर अपनी आस्था वोट के जरिए व्यक्त की है। इस आस्था के पीछे हिंदुत्व नहीं बल्कि विकास की और अपने सुरक्षित भविष्य की चाह है।
मध्यवर्ग पहले से ही भाजपा के पक्ष में होता नजर आने लगा था तो केवल इसलिए कि यूपीए के पहले शासनकाल में जो विकास दर उसे उत्साहित कर रही थी, जिसके चलते उसे ‘इंडिया शाइनिंग’ नजर आने लगा था, वह ठहर गई थी। फिर, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात में अमन-चैन और तरक्की का राज कायम हुआ ऐसा माना जाता है। मैं चूंकि इससे पूरी तरह से सहमत नहीं हूं इसलिए ‘माना जाता है’ शब्दावली प्रयोग में ला रहा हूं। अधिकतर लेकिन इसे मानते हैं, इसीलिए गुजरात के विकास मॉडल का कार्ड जमकर इन चुनावों में चला है। उत्तर प्रदेश के नतीजों से साफ नजर आता है कि पहली बार जात-गोत्र से परे वोट विकास के नाम पर पड़ा। यहां तक कि अल्पसंख्यक मतों की भी उतनी गोलबंदी नहीं हुई जितनी उम्मीद कांग्रेस और अन्य धर्मनिरपेक्ष कही जाने वाली पार्टियों को थी।
सोलहवीं लोकसभा के लिए जो जनादेश आया है वह इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है कि उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी का सूपड़ा ही साफ हो गया। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि कम से कम केंद्र की सरकार के लिए ही सही, वोट विकास के नाम पर पड़ा। अन्यथा पिछले दो दशक से भले ही किसी की आंधी क्यों न हो, समाज का एक वर्ग मायावती को ही वोट देते आया। इससे वे निरंकुश हो गर्इं और उनके राज में भ्रष्टाचार सभी हदों को पार कर गया। मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी ने भी उत्तर प्रदेश में यही किया। इन दोनों दलों को जनता ने बार-बार मौका दिया लेकिन वह हर बार छली गई।
उत्तर प्रदेश में इस बार न तो दलित कार्ड चला न ही मुसलिम। वोट केवल स्थिरता और विकास के नाम पर पड़े। बिहार में अवश्य नीतीश कुमार के अच्छे शासन के बावजूद जद (एकी) का प्रदर्शन कमतर होना अलग से विश्लेषण की मांग करता है। लालू प्रसाद यादव के जंगलराज की बनिस्बत आज का बिहार कहीं बेहतर स्थिति में है। इसके बावजूद वहां भाजपा का प्रदर्शन इसी ओर इशारा करता है कि इस बार केंद्र में मोदी को बैठाने का मन जनता ने बना लिया था और इसके लिए वह नीतीश कुमार की बलि तक चढ़ाने को तैयार है। कुछ ऐसा ही उत्तराखंड में भी हुआ है जहां मात्र दो माह पुरानी हरीश रावत सरकार का प्रदर्शन काफी अच्छा है, लेकिन उनकी कीमत पर मोदी को वहां की जनता ने वोट दिया।
अब बड़ा प्रश्न यह उठता है कि क्या नरेंद्र मोदी विकास को ही मूलमंत्र मान देश की सत्ता का संचालन अपने तरीके से करेंगे या फिर वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ‘अदृश्य’ एजेंडे का हिस्सा बन कर रह जाएंगे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संघ के अपने राजनीतिक उद्देश्य हैं, अपना एक तयशुदा एजेंडा है। यह समझा जाना और याद रखना बेहद आवश्यक है कि संघ भले ही लाख इनकार करे, लाख कहे कि वह एक सामाजिक या सांस्कृतिक संगठन है, लेकिन उसका भाजपा के आंतरिक मामलों में लगातार नियंत्रण करते रहना यह साबित करता है कि हिंदुत्व की अपनी अवधारणा को लागू करने के लिए भाजपा उसका राजनीतिक हथियार मात्र है।
थोड़ा पीछे जाएं तो ज्यादा साफ तस्वीर उभरती है कि किस प्रकार अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की कार्यशैली से कुपित हो तत्कालीन सरसंघचालक सुदर्शनजी ने इन दोनों दिग्गज भाजपा नेताओं के खिलाफ मुहिम छेड़ दी थी। संघ और विश्व हिंदू परिषद के नेताओं का साफ मानना रहा है कि अटल-आडवाणी ने राम मंदिर से लेकर धारा-370 और समान नागरिक आचार संहिता जैसे मुद्दों पर, मुसलिम तुष्टीकरण के चलते, संघ के साथ गद्दारी की।
संकट सबसे बड़ा यहीं से शुरू होता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अब यह चाहेगा, पूरी शक्ति के साथ प्रयास करेगा कि उसके हिंदुत्व मॉडल को लागू करने में नरेंद्र मोदी की सरकार न केवल पहल करे बल्कि येन-केन-प्रकारेण उसे अमली जामा भी पहनाए। मोदी क्या संघ के दबाव के आगे घुटने टेकेंगे, या जैसा कहा जाता है कि गुजरात में संघ और विश्व हिंदू परिषद को हाशिये पर रख उन्होंने शासन चलाया, केंद्र में भी वे कुछ ऐसा ही करेंगे? बड़ा प्रश्न यह भी है कि क्या जनता ने जो वोट नरेंद्र मोदी को दिया, उसे संघ हिंदुत्व के नाम पर दिया गया वोट मान भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की अपनी दशकों पुरानी अभिलाषा पूरी करने का दबाव बनाएगा, और क्या मोदी इस दबाव को किनारे कर विकास को आधार बना शासन कर पाएंगे?
अटल बिहारी वाजपेयी की राह में कितने कांटे संघ ने बोए इससे वे सभी वाकिफ हैं जिन्होंने राजग सरकार के छह बरस को नजदीक से देखा और समझा। समस्या यह है कि कोई भी कट्टरपंथी संगठन यह स्वीकार करने को तैयार नहीं होता है कि उसकी विचारधारा से इतर भी एक विचार है जिसका आदर किया जाना जरूरी है। लोकतंत्र का मतलब ही जनता का शासन है, लोक का तंत्र है। लेकिन कट्टर सोच इस सच को नहीं स्वीकार करता। इसलिए नरेंद्र मोदी किस प्रकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अदृश्य दबाव और महत्त्वाकांक्षा को थामते हैं, और विकास की जिस चाह ने जात, पात, गोत्र और यहां तक कि धर्म से परे उन्हें आम हिंदुस्तानी का मत दिलाया, उसकी लाज रख वे कैसे भारत को विकास के मार्ग पर आगे लेकर जाते हैं यह देखना बाकी है।