Apoorvanand - डेमॉगॉग का वक्त

कुछ महीने पहले प्रतापभानु मेहता ने पूछा,’डेमॉगॉग को हिंदी में क्या कहेंगे?’ इतनी बार इस शब्द का प्रयोग किया है लेकिन इसका हिंदी प्रतिरूप खोजना सूझा नहीं। डेमॉगॉग कौन है बताया जा सकता है लेकिन क्या है, बताना इतना सरल नहीं।  तुरत दिमाग में लफ्फाज कौंधा लेकिन उसका रिश्ता वाचालता से अधिक है। फिर एक और शब्द की ओर ध्यान दिलाया मित्र  अरशद अजमल ने, शोलाबयानी। लगा कि यह अंगेज़ी के ‘रैबल राउज़र’ के काम के लिए अधिक उपयुक्त प्रतिरूप  है। फादर कामिल बुल्के के  और दूसरे शब्दकोशों में देखा तो पाया कि यह शब्द है ही नहीं। तो क्या फादर का कभी किसी डेमॉगॉग से पाला नहीं पड़ा था?
डेमॉगॉग ऐसा वक्ता है जो  लोगों की भावनाओं को उत्तेजित करके अपना उद्देश्य सिद्ध करता है। जाहिरा तौर पर यह एक नकारात्मक शब्द माना जाता है। लेकिन हमेशा ऐसा न था। प्राचीन ग्रीस में  जनता या लोगों के नेता को डेमॉगॉग कहते थे। यह पेडागॉग की तरह का ही एक शब्द था। इसमें कोई  मूल्य निर्णय  न था। धीरे-धीरे यह नकारात्मक अर्थ लेता गया। अब आप किसी भी जननेता को डेमॉगॉग नहीं कह सकते।
भावनाओं को अपील करना अपने आप में कोई नकारात्मक बात नहीं। आखिर किसी मकसद के लिए लोगों की गोलबंदी के लिए उन्हें भावनात्मक तौर पर  सक्रिय  करना ही होता है। लोकतंत्र या जनतंत्र का व्यापार लोगों से संवाद के जरिए  या उन्हें निरंतर सम्बोधित करते हुए ही चल सकता है। लेकिन यह दो तरह से हो सकता है। एक तरीका वह है जिसमें लोगों की तर्क शक्ति या वृत्ति को सक्रिय करने पर ज़ोर हो और  दूसरा वह जिसमें तर्क करने की शक्ति को निष्क्रिय कर दिया जाए। भावनाओं को उत्तेजित करने से तात्पर्य तात्पर्य तार्किकता को सुला देना ही माना जाता है।
संकट यहीं खत्म नहीं होता। तर्क और भावना में जो अंतर यहाँ किया जा रहा है उस पर  ध्यान देने से मालूम होता है कि तर्क को ऊंचा और भावना को हेठा मान कर  ही हम आगे बढ़ते हैं। तो क्या भावना का अपना कोई तर्क नहीं होता! फिर एक और सवाल! लोकतंत्र में कोई भी नेता अलग-अलग लोगों से बात नहीं करता। प्रायः व्यक्तिविशिष्ट सम्बोधन या संवाद नहीं किया जाता है। व्यक्ति का जनता में परिवर्त्तन एक समूह की सत्ता में अस्थायी तौर पर ही सही,अपनी विशिष्ट सत्ता के  विलय के बिना सम्भव नहीं।
कहते तो हैं कि लोकतंत्र संवाद-आधारित है लेकिन व्यावहारिक रूप में वह एकतरफा होता है।नेता समूह को सम्बोधित करता है। वह उससे बातचीत नहीं करता। बातचीत या संवाद तभी सम्भव है जब दूसरे पक्ष को भी अपनी बात कहने का पर्याप्त अवसर हो। जब जनता का काम सिर्फ  नेता का भाषण सुनना ही हो तो फौरी प्रतिक्रिया ताली बजाने या समर्थन  में नारे लगाने या हाय-हाय करने से ज़्यादा नहीं होती। यह हो सकता है कि सुनते हुए हम अलग-अलग सोच रहे हों और तर्क भी कर रहे हों भले ही वह मुखर न हो। सुनते हुए नेता या वक्ता की बात को लेकर हमारे सवाल हो सकते हैं। लेकिन किसी ‘ऐक्शन’ के लिए ज़रूरी है कि इन सवालों को या आशंकाओं को स्थगित करवा दिया जाए। इसलिए लोकतंत्र में भी सफल वक्ता वह नहीं माना जाता  जो सुनने वाले  में सवाल पैदा करे। सवाल या शंका का अर्थ है ‘ऐक्शन’ का स्थगन।
संवाद में दोतरफापन निहित है। लेकिन लोकतंत्र का अर्थतंत्र इसकी  इजाजत नहीं देता।भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में जनता और नेता एक-दूसरे से बड़ी जनसभाओं में ही मिल सकते हैं। वहाँ पहचान नेता की ही होती है,जनता समूह में विलीन होकर अमूर्त हो जाती है। वक्ता को, जोकि नेता ही हो सकता है अपनी बात पर शक करने या उसकी समीक्षा करने का अवसर नहीं होता। उसकी एक बाध्यता यह भी है कि उसकी अपील व्यापकतम और अधिकतम हो। इसके लिए ज़रूरी है कि वह अपनी बात को सरल से सरलतर करे। तर्क की जटिलता का विकल्प उसके पास नहीं होता। वह एक  साझा रग  ढूँढता है जिसे छूकर वह जनता को विगलित या उत्तेजित कर सके.संदेश का सरलीकरण उसकी बाध्यता है.
लोकतंत्र  जनता को आंदोलित किए बिना नहीं चल सकता। किसी मुद्दे के इर्द-गिर्द अधिकतम गोलबंदी के लिए संप्रेषण क्षमता एक प्राथमिक गुण है जो किसी भी आन्दोलनकारी के पास होना ही चाहिए। यह सही है कि हर आंदोलनकारी प्रभावशाली वक्ता नहीं होता लेकिन उसमें अपने सन्देश के ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाने का कोई  तरीका होना ही चाहिए। तो क्या हर आंदोलनकारी डेमॉगॉग होता है?वह हो न हो, उसकी संभावना उसमें होती है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
डेमॉगॉग लोकतंत्र की उपज है।अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बिना उसका जड़ जमाना संभव नहीं। लेकिन वह लोकतंत्र की सीमाओं को उजागर भी करता है।वह अक्सर ऐसे समय प्रभावशाली हो उठता है जब लोक में किसी कारण असुरक्षा की भावना प्रबल होने लगे। असुरक्षा की भावना पैदा भी की जा सकती है।जनता को समझाया जा सकता है कि उसकी असुरक्षा का स्रोत एक विशेष समुदाय या समूह है। प्रायः आर्थिक मंदी के समय या युद्ध की स्थिति  डेमॉगॉग के लिए अनुकूल सिद्ध होती है। पिछली सदी में हिटलर को एक ऐसी ही शख्सियत के तौर पर देखा गया है.ध्यान रहे कि हिटलर के उदय और उसके  ताकतवर होने के लिए जर्मन लोकतंत्र ने ही  अवसर प्रदान किया था।अमरीका में कम्युनिस्ट विरोधी मैकार्थी को भी इसी श्रेणी में रखा जाता है।
पाश्चात्य  और अमरीकी अकादमिक जगत में लोकतंत्र में वक्तृता से जुड़े इन प्रश्नों पर अध्ययन और लेखन की समृद्ध परंपरा है।वहाँ हिटलर या मैकार्थी जैसे राजनेताओं की असाधारण प्रभावशालिता की पड़ताल की गई है।दोनों ही तरह के राजनेताओं में एक बात सामान्य है। वे जनता को विश्वास दिला पाए कि उनका एक दुश्मन है जो उनके सुखचैन के रास्ते में रोड़ा है और उसके विनाश के बिना उसकी हिफाजत मुमकिन नहीं। इस काम के लिए उन्होंने असाधारण अधिकार मांगे।
डेमॉगॉग की अनेक परिभाषाएं की गयी हैं।इस क्षेत्र के विद्वान् इस पर सहमत हैं कि डेमॉगॉग वह है जो खुद  को एक मात्र  मुहाफिज या त्राता के तौर पर पेश करता है, जो जनता में पहले से किसी समूह विशेष के लिए विद्यमान घृणा को और उकसाता है। तथ्य और सत्य में उसकी आस्था कतई नहीं होती। बल्कि वह लोगों को यकीन दिला पाता है कि स्थिति इतनी खतरनाक है कि तथ्य और सत्य की बात अप्रासंगिक हो गई है। वह अपने लिए निरंकुश सत्ता की मांग करता है ताकि वह सत्य और तथ्य के नाम पर समय बर्बाद करने वालों पर काबू पा सके।
अक्सर  देखा गया है कि जानते हुए भी कि असत्य का सहारा लिया जा रहा है,जनता उसे नज़रअंदाज करने को राजी हो जाती है. यानी डेमॉगॉग जनता की सहमति के बिना जबरन जगह नहीं बना सकता। जनता की यह सहमति पार्टी के तंत्र या अन्य संचार माध्यमों के सहारे धीरे-धीरे बनाई जाती है। लेकिन उसके केंद्र में  एक व्यक्ति का होना आवश्यक है जो ईश्वरीय आभा से वलयित किया जाता है। सामान्य लोगों की परख के लिए इस्तेमाल की जाने वाली कसौटी उसके लिए अपर्याप्त है,यहाँ तक कि वह मर्त्य जन से तुलनीय भी नहीं रह जाता। उसमें एक प्रकार की उदात्तता का निवेश किया जाता है जिसके सहारे वह पूजनीय हो उठता है।
भारत में कौन से ऐसे चरित्र हैं जिन्हें इस श्रेणी में रखा जा सकता है? अभी लोकसभा के आम चुनाव के लिए प्रचार को देखते हुए कम  से कम एक ऐसे चरित्र को पहचाना जा  सकता है। लेकिन उसके पहले भी ऐसे राजनेता रहे हैं। हरिशंकर परसाई की अचूक निगाह ने अटल बिहारी वाजपेयी को ऐसे ही नेता के रूप में पहचाना था। जीवित रहते तो वे यकीन न कर पाते कि वाजपेयी ऐसे व्यक्तित्व बना दिए गए हैं जिन पर प्रश्न करना राष्ट्रद्रोह से कम नहीं है।
लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है कि पहचाना जा सके कि वाग्मिता के सहारे संवाद की सम्भावना को कैसे कुंठित किया जा रहा है और कौन यह कर रहा है। भाषण सुनना भर जब अच्छा लगने लगे और तर्क को बेकार समझा जाने लगे, जब कहा जाने लगे कि अभी बाकी सवालों को छोड़ दीजिए, उन पर बात करने की विलासिता का समय नहीं, फैसले और कार्रवाई की घड़ी है तो मान लेना चाहिए कि डेमॉगॉग हमारी गर्दन के पास साँस ले रहा है। इसके लिए बहुत कान लगाने की ज़रूरत नहीं, साँस की यह खतरनाक आवाज़ आपको यों ही सुनाई दे जाएगी।

Popular posts from this blog

Third degree torture used on Maruti workers: Rights body

Haruki Murakami: On seeing the 100% perfect girl one beautiful April morning

The Almond Trees by Albert Camus (1940)

Albert Camus's lecture 'The Human Crisis', New York, March 1946. 'No cause justifies the murder of innocents'

Etel Adnan - To Be In A Time Of War

After the Truth Shower

Rudyard Kipling: critical essay by George Orwell (1942)