सोशल डेमोक्रैसी के एजेण्डे का मसौदा
सोशल डेमोक्रैसी के एजेण्डे का मसौदा
5/ 1991 से हर सरकार अपनी पुरोगामी सरकार से अधिक कठोर रही है. आज 2014 सेहम जिसको भुगत रहे हैं वह सरकार सबसे ज़्यादा बेशर्म और विभाजनवादी है. सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर बहस का अभाव पूंजीवाद और नियांत्रणवादी अर्थतंत्र, दोनों के अनुकूल है.हमें चाहिए विकास का नया माडल.
2/ 1991 से पहले भी रोज़गार की कोई योजना नहीं थी, फिर भी आय की असमानता का अंतर धीरे धीर्रे कम होता जा रहा था. The Hindu अख़बार में मुत्तुकुमार लिखते हैं कि “लूकास चान्सेल और थोमस पिकेटी के हाल ही में प्रकाशित एक संशोधन लेख के अनुसार भारतीय आयकर विनियम 1922 में लागू होने के बाद भारत में आय की असमानता का अंक अधिकतम ऊंचाई पर है. उपरी 1 प्रतिशत के हिस्से में देश की 22 प्रतिशत आय जाती है. उन्होंने देखा कि यह दर इतनी ऊंची कभी नहीं थी. 1951 से 1980 के वर्षों में आय का ग़रीबों और और धनिकों की आय का अंतर कम होने का देखने को मिला, लेकिन, उनका कहना है, 1980 से 2014 के बीच रुझान उलटी दिशा में चलने लगा है. अनुमान है कि गिनी क-ऍफिश्यण्ट 0.50 के नज़दीक होगा जो कभी इतना ऊपर नहीं गया... (गिनी को-ऍफिश्य्ण्ट धनवानों और ग़रीबों की आय का मानदण्ड है. केवल सरकार द्वारा कुछ बहुत महत्वपूर्ण क्षेत्र, जैसे, स्वास्थ्य और शिक्षा, में सीधे सार्वजनिक ख़र्च के द्वारा ही पलटा जा सकता है) http://www.thehindu.com/news/cities/kolkata/domestic-workers-organisation-granted-trade-union-status-for-the-first-time-in-bengal/article24187138.ece
3/ स्वास्थ्य क्षेत्र में रोज़गार: सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में सबसे कम ख8अर्च करने वाले देशों में भारत की गिनती होती है. भारत में प्रति व्यक्ति सरकारी ख़्र्र्च 15 डालर है (नैशनल हेल्थ प्रोफाइल पृ. 205).रुआण्डा जैसा पिछड़ा देश भी स्वास्थ्य क्षेत्र में प्रति व्यक्ति 20 डालर ख़र्च करता है. दक्षिण एशियाई प्रादेशिक संगठन के दस देशों में भारत से कम ख़र्च करने वाले केवल दो देश हैं – म्यांमार और बंग्लादेश, जिनका प्रतिव्यक्ति सरकारी ख़र्च 9 डालर है.
4/ ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाएं न के बराबर हैं और जो है, उसमें भी 20-22 प्रतिशत के कमी है. 1,56,000 उपकेन्द्रों मे से 78,000 में पुरुष हेल्थ वर्कर नहीं हैं, 6,300 केन्द्रों में सहायक नर्स-दाई(ANMs) नहीं हैं. और 4200 केन्द्रों में दोनों नहीं हैं. 25,000 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में से 6,000 में डाक्टर नहीं हैं, 10,000 में लैब टेकनिश्यन नहीं हैं. शल्य चिकित्सकों की कमी 86.5, प्रसूति विशेषज्ञों की 74प्रतिशत और डाक्टरों एवं बालरोग विशेषज्ञों की कमी 81 प्रतिशत है स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में सुधार और रोज़गार की बहुत संभावनाएं हैं, लेकिन अब निजीकरण पर ज़ोर दिया जाता है जिसका मतलब है कि मरीज़ का अपना ख़र्चा बढ़ता रहेगा.आज भारत में प्रत्येक व्यक्ति अपनी जेब से स्वास्थ्य रक्षा के लिए प्रत्येक र. 100 में से 65 रुपया ख़र्च करता है.
लोकतंत्र ख़तरे में
1/ आज देश में न्याय प्रणाली दिन-ब-दिन तेज़ी से टूटती जा रही है – इसके कई कारण हैं, जो जटिल भी हैं, लेकिन आम नागरिक पर इसका एक ही असर होता हैः. न्याय व्यवस्था के निचले स्तर पर ग़रीब आदमी को अपना बचाव करने के लिए वकील तक
नहीं मिल पाता, ईमानदार पब्लिक प्रोसीक्यूटरों को सताया जाता है और
कहीं कहीं जज भी बेक़सूर लोगों के दमन में हाथ बँटाते हैं. केसों के आबंटन को लेकर उच्चत्म न्यायालय में संकट की स्थिति, चार वरिष्ट जजों द्वारा इसका खूले मंच पर से विरोध, अरुणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री कलिखो-पुल के सुसाइड नोट कि उपेक्षा और जज लोया की रहस्यम्य मौत – ये सूचित करते हैं कि न्याय प्रणालि
में सेंध लग चुकी है. आज न्याय व्यवस्था में जजों की
कमी है, लेकिन न्याय के संकट से इसका कोई लेनादेना नहीं है. भारत के संघ राज्य की वैधता के लिए न्यायपूर्ण और सक्रिय न्याय व्यवस्था आवश्यक है, जिसे केवल न्यायतंत्र ही सही ढंग से बचा सकता है, जिसे ठीक लगा वह न्यायाधीश बन जाए इससे अथवा राज्य की हिंसा से नहीं. न्याय व्यवस्था को होने वाली
हानि से राजतंत्र की नींव को स्थायी रूप से क्षति पहुँचेगी. इस बात को लोगों को समझाना सिविल सोसाइटी के कार्यकर्ताओं की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी है.
2/सांप्रदायिक राजनीति, ख़ास कर के शासकीय अथवा अर्ध-शासकीय प्रोत्साह्न से न्याय प्रणाली और क़ानून के शासन को ख़त्म कर देगी. 1947, 1984, 1992, 2002 की घटनाएं इसी
सांप्रदायिक राजनीति के पेट से पैदा हुई हैं. इस विवादास्प्द सवाल
पर खूले मन से चर्चा होनी चाहिए. आज तो, हाल यह है कि माहौल में नफ़रत है. अपराधियों को विश्वास है कि उन्हें सज़ा नहीं होगी, (एन. डी. ए. सरकार और उसके ग़ैर-संवैधानिक आक़ा, आर. एस. एस. के खूले समर्थन से) के सब बंधन टूट चूके है जिसका मक़सद
वैध और अवैध हिंसा के बीच की भेदरेखा मिटाना है. भारतीय प्रजातंत्र
और संविधान के अनुच्छेद 21 में निर्दिष्ट ‘जीने के अधिकार’ समेत हमारे मूल अधिकारों के लिये यह स्थिति भयावह है. ग़ैर-सरकारी संगठनों और श्रमिक
आंदोलनों पर भी सांप्रदायिक सोच का प्रभाव पड़ा है, जो चिंता का विषय
है.
3/ प्रजातांत्रिक संगठन मेहनतकश, ग़रीब और महिलाओं समेत समाज के वंचित वर्गों के लिए कहीं ज़्यादा आवश्यक है, बनिस्बत उनके, जो आर्थिक और
राजनीतिक रूप से समर्थ हैं. इसी लिये प्रत्येक नागरिक के लिए यह समझना ज़रूरी बन जाता है कि एक ओर से
सांप्रदायिक हिंसा और आपराधिक न्याय प्रणाली का टूटना, तो दूसरी ओर, प्रजातांत्रिक संस्थाओं के अवमूल्यन, दोनों के बीच क्या
संबंध है. आज ज़रूरत इस बात की
है कि ऐसे क़दम उठाए जाएं जिससे जजों में निर्भयता पैदा हो. जेल सुधार भी उतने
ही आवश्यक हैं. पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों को संवैधानिक मानदण्डों और एक सार्वजनिक सेवक के
कर्तव्यों के बारे में प्राथमिक तालीम दी जानी चाहिए.
चुनाव संबंधी सुधार
चुनाव
1/ केवल चुनावों से लोकतंत्र मज़बूत नहीं बनता. लेकिन लोगों के पास
अपनी राय देने का यही एकमात्र ज़रिया है. भारतीय चुनावों ने आश्चर्यकारी परिणाम भी दिये हैं, जैसे 1977 में इंदिरा गांधी
की हार. परंतु चुनाव अक्सर
भावनात्मक मुद्दों पर लड़े जाते हैं. तो, हमें 1977 में परिवार नियोजन के विरुद्ध जनाक्रोश को नज़रअंदाज़
नहीं करना चाहिए.
2/ ‘ सबसे आगे, सब पर भारी’ पद्धति के चुनावों में बहुत बड़ी कमियाँ हैं. इस् प्रणालि में
विकृत परिणाम मिलते हैं. किसी पार्टी को मिले वोट और जीती हुई सीटों की बिच कोई अनुपात नही बनता. इस पर गंभीर्र्ता से विचार
करने की आवश्यकता है.चुनाव के कई वैकल्पिक प्रकार हैं: आनुपातिक प्रतिनिधित्व, सूचि पद्धति और
वोटिंग का दूसरा दौर. इसमें सबसे आसान तो वोटिंग के दूसरे दौर् की व्यवस्था सबसे आसान लगती है.अगर कोई जीतने वाले प्रत्याशी
को 50 प्रतिशतसे अधिक वोट
नहीं मिलते तो सबसे ऊपर के दो प्रत्याशियों के लिए वोटिंग का दूसरा दौर होना चाहिए जिससे दो में से एक
को कम-से-कम 50 प्रतिशत वोट मिले.
3/ हमने देखा है कि पार्टियाँ ख़्द ही अपने प्रतिद्वन्द्वी के वोट काटने के लिए
अपक्ष उम्मीदवार खड़े करती हैं. अगर मतदान के दूसरे दौर की व्यवस्था लागू की जाए तो पार्टियां चाहेंगी की
प्रत्तिद्वन्द्वियों की संख्या कम हो, क्योंकि केवल इस स्थिति में एक ही दौर में स्पष्ट
परिणाम निकलने की संभावना रहती है.
4/ NOTA आज जैसा है, बेअसर है. यह सिर्फ़ यह दर्शाता है कि आपने अपने वोट के अधिकार
का प्रयोग किया. लेकिन NOTA के द्वारा जो राय दी जाती है उसको रिकार्ड नहीं किया
जाता. अगर इसे असरदार
बनाना है तो सबसे अधिक वोट जीतने वाले प्रथम दो प्रत्याशियों के वोटो से एक अनुपात
में NOTA के वोटों को घटाना
चाहिए. वैसे त्तो तीसरे
नंबर के प्रत्याशी से लेकर सबसे कम वोट लेनेवाले प्रत्याशी को जो भी वोट मिलते हैं, पहले दो
प्रत्याशियों के लिए तो NOTA के समान ही हैं. क्याअ यह वोत भी
उनके वोटों की गिनती से घटाने चाहिए?
जन-विरोधी
नीतियाँ
1/ यह कोई
राहस्य की बात नहीं कि यह सरकार अल्पसंख्यकों के लिए काम कर रही है – देश के धनी अल्पसंख्यक.
– ग़रीबों और हाशिये पे धक्र्ल दिये गये लोगों की इतनी बड़ी आबादी के लिए नहीं. आगर आज
मुसलमान और दलित को निशाना बनाया जा रहा है तो
इसकी वजह यह है कि बहुसंखकों में भी ये बहुसंख्यक
हैं.
2/ वैसे
भी पूँजीवाद हमेशा पश्चाद्गामी सामाजिक मूल्यों के साथ समाधान कर लेता है. इसी कारण
से मएरिका के ग़रीबों में आफ्रिकन अमेरिकन की संख्या अधिक है. अगर पूंजीवाद सामंती समीकरणों
को बदल कर सामाजिक समानता स्थापित करता होता, जैसा कि पूंजीवाद के पक्षधरों का दावा
है, तो अमेरिका में नस्लवाद नहीं होता और भारत में जाति आउर धर्म आधारित शोषण का अंत
हो गया होता. लेकिन पूंजीवाद के निरंकुश विकास के बावजूद ऐसा नहीं हुआ है, बल्क़ि आपसी
वैमनस्य बढ़ा है.
3/ श्रमिक
को जीने के लिए काम चाहिए और पूंजीवाद स्वभावतः अधिकतम लोगों को रोज़गार नहीं दे सकता
है. उसे वही नीतियाअँ रास आती हैं जो उनके वेतन बिल को कम करे. पूंजीवाद के क्रमशः
विकास के साथ आपसी वैमनस्य भी बढ़ता चला है.
4/ राष्ट्रवाद
एक ऐसी वैचारिक अवधारणा है जिसका इस्तेमाल BJP/RSS सरकार तथाकथित आंतरिक दुश्मनों के
ख़िलाफ़ जन-भावनाओं को भड़काने के लिए करता है. लोग अपनी सामाजिक स्थिति और वस्तुगत अभावों
के बारे में सोचना बंद कर दे, इस उद्देश्य से एक वर्ग में सदा पीड़ित रहने की भावना
और सामाजिक खींचातानी को बढ़ावा दिया जाता है.
5/ 1991 से हर सरकार अपनी पुरोगामी सरकार से अधिक कठोर रही है. आज 2014 सेहम जिसको भुगत रहे हैं वह सरकार सबसे ज़्यादा बेशर्म और विभाजनवादी है. सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर बहस का अभाव पूंजीवाद और नियांत्रणवादी अर्थतंत्र, दोनों के अनुकूल है.हमें चाहिए विकास का नया माडल.
रोज़गार की नीति
1/ ‘वर्ल्ड इम्प्लोयमेन्ट ऍण्ड सोशल आउट लूक (WESO) ट्रेण्ड्स 2018 में दर्शाया गया है कि 2017 में 18.3 मिल्यन भारतीय बेरोज़गार थे, और यह संख्या 2018 में 18.6 मिल्यन और 2019 में 18.9 मिल्यन तक पहुँचने का अंदाज़ है. इसके उपरांत लेबर ब्यूरो की त्रैमासिक रिपोर्टों से भी यही जानकारी मिलती है कि अगर रोज़गार के अवसर पैदा होते हैं तो भी केवल कमज़ोर क्षेत्रों में (जहाँ काम के स्थायित्व की गारण्टी नहीं होती. निर्माण, मनोरंजन आतिथ्य अथवा बीड़ी बनाना, कपड़ों में बटन लगाना आदि WESO के मुताबिक़ रोज़गार के लिए कमज़ोर क्षेत्र हैं).2/ 1991 से पहले भी रोज़गार की कोई योजना नहीं थी, फिर भी आय की असमानता का अंतर धीरे धीर्रे कम होता जा रहा था. The Hindu अख़बार में मुत्तुकुमार लिखते हैं कि “लूकास चान्सेल और थोमस पिकेटी के हाल ही में प्रकाशित एक संशोधन लेख के अनुसार भारतीय आयकर विनियम 1922 में लागू होने के बाद भारत में आय की असमानता का अंक अधिकतम ऊंचाई पर है. उपरी 1 प्रतिशत के हिस्से में देश की 22 प्रतिशत आय जाती है. उन्होंने देखा कि यह दर इतनी ऊंची कभी नहीं थी. 1951 से 1980 के वर्षों में आय का ग़रीबों और और धनिकों की आय का अंतर कम होने का देखने को मिला, लेकिन, उनका कहना है, 1980 से 2014 के बीच रुझान उलटी दिशा में चलने लगा है. अनुमान है कि गिनी क-ऍफिश्यण्ट 0.50 के नज़दीक होगा जो कभी इतना ऊपर नहीं गया... (गिनी को-ऍफिश्य्ण्ट धनवानों और ग़रीबों की आय का मानदण्ड है. केवल सरकार द्वारा कुछ बहुत महत्वपूर्ण क्षेत्र, जैसे, स्वास्थ्य और शिक्षा, में सीधे सार्वजनिक ख़र्च के द्वारा ही पलटा जा सकता है) http://www.thehindu.com/news/cities/kolkata/domestic-workers-organisation-granted-trade-union-status-for-the-first-time-in-bengal/article24187138.ece
3/ स्वास्थ्य क्षेत्र में रोज़गार: सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में सबसे कम ख8अर्च करने वाले देशों में भारत की गिनती होती है. भारत में प्रति व्यक्ति सरकारी ख़्र्र्च 15 डालर है (नैशनल हेल्थ प्रोफाइल पृ. 205).रुआण्डा जैसा पिछड़ा देश भी स्वास्थ्य क्षेत्र में प्रति व्यक्ति 20 डालर ख़र्च करता है. दक्षिण एशियाई प्रादेशिक संगठन के दस देशों में भारत से कम ख़र्च करने वाले केवल दो देश हैं – म्यांमार और बंग्लादेश, जिनका प्रतिव्यक्ति सरकारी ख़र्च 9 डालर है.
4/ ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाएं न के बराबर हैं और जो है, उसमें भी 20-22 प्रतिशत के कमी है. 1,56,000 उपकेन्द्रों मे से 78,000 में पुरुष हेल्थ वर्कर नहीं हैं, 6,300 केन्द्रों में सहायक नर्स-दाई(ANMs) नहीं हैं. और 4200 केन्द्रों में दोनों नहीं हैं. 25,000 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में से 6,000 में डाक्टर नहीं हैं, 10,000 में लैब टेकनिश्यन नहीं हैं. शल्य चिकित्सकों की कमी 86.5, प्रसूति विशेषज्ञों की 74प्रतिशत और डाक्टरों एवं बालरोग विशेषज्ञों की कमी 81 प्रतिशत है स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में सुधार और रोज़गार की बहुत संभावनाएं हैं, लेकिन अब निजीकरण पर ज़ोर दिया जाता है जिसका मतलब है कि मरीज़ का अपना ख़र्चा बढ़ता रहेगा.आज भारत में प्रत्येक व्यक्ति अपनी जेब से स्वास्थ्य रक्षा के लिए प्रत्येक र. 100 में से 65 रुपया ख़र्च करता है.
5/ शिक्षा में रोज़गार: प्राथमिक शिक्षा में 18 प्रतिशत
और माध्यमिक स्तर पर 15 प्रतिशत शिक्षकों की कमी है. प्रत्येक 10 पदों में से 6 खाली
हैं.दोनों को मिलाकर 10,00,000 शिक्षकों की आवश्यकता है. यह कार्य बहुत ज़रूरी है क्योंकि
देश के 55% से 59 प्रतिशत बच्चे सरकारी स्कूलों मेंही पढ़ते हैं(indiaspend )
6/ न्यायतंत्र में रोज़गार: दिसंबर 2017 के आँकड़े दर्शाते हैं
कि निम्न न्याय प्रणालि में 6000 पद रिक्त हैं और 2.60 करोड़ केस लंबित हैं.
श्रमिक और ठेका प्रथाः उद्योगपतियों के मुनाफ़े के लिए श्रम
क़ानूनों में (जिसमें बच्चों को प्रभावित करने वाले क़ानून भी
हैं) परिवर्तन किया जा रहा है. असंगठित
क्षेत्र के श्रमिकों को निर्धारित न्यूनतम वेतन भी नहीं मिलता, उनका 30% वेतन ठेकेदार चुरा लेते हैं. उनके
लिए भ्रष्टाचार का केवल यही केन्द्री अर्थ है. सबसे पहले सरकारी विभागों में ठेका
प्रणालि समाप्त होनी चाहिए.देश के सभी श्रमिकों के लिए न्यूनतम वेतन
का एक ही फार्मूला होना चाहिए. सातवें वेतन आयोग ने 15वीं त्रिपक्षी भारतीय श्रमिक परिषद के फार्मूले को मानकर न्यूनतम वेतन रु.18,000
तय किया है. किसी भी श्रमिक को इससे कम नहीं
मिलना चाहिए.
सामाजिक सुरक्षा: ग़रीब, अनाथ, वृद्ध और लाचार लोगों तथा असंगठित और
अनौपचारिक क्षेत्र के कामग़ारों को पैन्शन और निःशुल्क मैडिकल कार्ड जैसी अन्य
सामाजिक सुरक्षा सेवाओं का लाभ मिलना चाहिए. पैन्शन की राशि प्रति व्यक्ति प्रति माह
रु. 4,500 से कम नहीं होनी चाहिए और दाम बढ़ने के
साथ उस हिसाब से राशि बढ़ानी चाहिए.
इन मुद्दों को सार्वजनिक माँग और
राजनीतिक एजेण्डा बनाना चाहिए. विशेषज्ञों के सहायता से हमें आनेवाले 6 महीनों में
जनता का मैनिफेस्टो तैयार करना चाहिए.
नीति-निर्देशक सिद्धांतः संविधान के खण्ड 4 में समाविष्ट ‘राज्य
की नीतियों के मार्गदर्शक सिद्धांतों (धारा 36 से 51) का उद्देश्य न्यायपूर्ण समाज
की र्चना का था. संविधान के अनुसार सरकार को क़ानून बनाते समय इसे ध्यान में रखना
है, हालाँकि ऐसा हुआ या नहीं इसकी न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती है. मार्गदर्शक
सिद्धांतों का वर्गीकरण इस प्रकार से कियाअ गयाअ हैः गांधीवादी, सामाजिक, राजनीतिक,
प्रशासनिक, वैधिक, पर्यावरणीय, ऐतिहासिक स्मारकों की सुरक्षा, शांति और सुरक्षा.
धारा 37: “यह सरकार का कर्तव्य होगा कि नितियाँ बनाते समय अथवा राज्य के
शासन के लिए क़ानून बनाते समय इन मार्गदर्श्क सिद्धांतों को लागू करे.”
धारा
38 सरकार को बाध्य करती है कि वह... ऐसी सामाजिक व्यवस्था काअ निर्माण करे
जिसमें सभी के लिए सभी क्षेत्रों में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित
हो.
आज
सामाजिक वास्तविकता क्या है ?आर्थिक नीतियाँ धनकुबेर्रों के पक्ष में बनाई
जाती हैं.इस कारण असमानता बढ़ी है लेकिन कोर्ट इसकी सुनवाई नहीं करेंगी.सम्विधान
लिखने के विचार के मूल में ही स्बको समान न्याय और सबके साथ समान वर्ताव का ख़याल
है राज्य का हर्एक कार्य इसी से प्रेरित होना चाहिए, लेकिन आर्थिक असमानता ओ
वाजिब माना जाता है. यह उल्लेखनीय है कि ‘गांधीवादी’ को सामाजिक, आर्थिक,
प्रशासनिक, वैधिक और पर्यावरणीय से अलग रखा गया है, मानो कि गांधी की आदर्श इन
क्षेत्रों के सिवा कुछ अन्य विचार को मूर्तिमान करते थे
मार्गदर्शक
सिद्धांतों की न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती, यह चर्चा का विषय है.
कृषिः 1947 के बाद अथाह औद्योगिक विकास के बावजूद भारतीय अर्थतंत्र का
मुख्य रूप बदला नहीं है. भारत एक कृषि-आधारित अर्थतंत्र है, यह स्वीकारना आवश्यक
है. इसके बावजूद देश में कोई राष्ट्रीय कृषि निति नहीं बनाई गई है. कृषि का रोज़गार
में 65 प्रतिशत हिस्सा है, फिर भी सरकार्र इसे बोझ मानती है और किसानों की ऋण और
न्यूनतम समर्थन मूल्य की सम्स्याअएं दिन-ब-दिन बिगड़ती रही है.
आज कृषि का आमूल परिवर्तन हो चुका है. ‘ज़मीन जोताने वाले की” जैसे नारे अब
बेमानी हो चुके हैं क्यों कि बड़े किसान मशीनों का इस्तेमाल करते हैं. उन्हें
मज़दुरों की नहीं टेकनिश्यनों और ट्रैक्टर ड्राइवरों की ज़रूरत है, जिन्हें खेती के
ज्ञाअन से कोई लेनादेना नहीं है. आज केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लाभ के लिए खेती का व्यापारीकरण हो रहा है, जो ग्रामीण जनता के
लिए कोई काम का नहीं है.ठेके पर खेती एक नया औजार है, जो भूमि के मालिकों को ठेकेदार
कंपनियों के दास बना देगी.
आज देश पर औद्योगिक
कोरिडोर थोपे जा रहे हैं. इससे उपजाउ ज़मीन बंजर
हो जाएगी, किसान और खेतीहर मज़दूर का रोज़ीरोटी
कमाने का ज़रिया ख़त्म हो जाएगा. सरकार हमारे लंबे
समुद्र किनारे पर बंदरगाहों को विकास का माध्यम बनाकर ‘सागरमाला’ प्रोजेक्ट विकसित करना चाहती है. इससे तो किनारे के
पास वाला समुद्री पानी, जो छोटे मछुआरों के
जीवन का आधार है, प्रदूषित हो जाएगा. मछुआरों के लिए प्रदूषण मुक्त पानी जीवन
की प्राथमिक शर्त है, क्योंकि मछली को पनपने
के लिए प्रदूषण मुक्त पर्यावरण चाहिए. सागरमाला हमारे समुद्री किनारे के लिए मृत्युघंट के समान है, जो लाखों मछुआरों को बेरोज़गार बना देगा. सागरमाला प्रोजेक्ट को रद्द करना चाहिए.
उद्योग: बड़े कॉर्पोरेशनों की कार्यप्रणाली ने ऐसी स्थिति पैदा
की है कि आर्थिक सत्ता मुठ्ठीभर हाथों में केन्द्रित हो गई है.
इस सत्ता का एक उदाहरण सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों के डूबे हुए क़र्ज़े हैं
– ‘धनकुबेरों के लिए समाजवाद और ग़रीबों के लिए पूँजीवाद’ – यह हाल है हमारे देश का!
प्राकृतिक संसाधनः नदियाँ, झीलें और तालाबों, जंगलों और समुद्री तट, समुद्री जीव, आदिवासी ज़मीन हमारी प्राकृतिक संपदा है.
इन्हें क़ानून में व्यक्ति का दर्ज़ा देना चाहिए. न्यू ज़ीलैण्ड में सरकार ने माओरी आदिवासी जाति के साथ समझौता किया है और
इसके मुताबिक़ 82111 वर्ग मील में फ़ैले राष्ट्रीय उद्यान ‘ते उरुवेरा’ को व्यक्ति का दर्ज़ा दिया गया है. अब इसकी संरचना के साथ अनुचित छेड़्छाड़ करना अपराध है. 2012 में न्यू ज़ीलैण्ड सरकार ने व्हांगानूई नदी को भी वैसा ही दर्ज़ा दिया था. अब प्रदूषण फ़ैलाने वालों को सज़ा दी जाती
है और वन प्रदेश माओरी जाति के द्वारा उपयोग के लिए सुरक्षित किया गया है.
हमें इन उदाहरणों से
सीख लेनी चाहिए, ताक़ि खनिज, लकड़ी, वन्य जीवन आदि के अंधाधूँध नुकसान को
प्रकृति के अधिकार पर हमले के रूप में देखा जाए. आदिवासी जातियों को प्राकृतिक संपदा का
संरक्षक बनाना चाहिए. इक्वेडोर के नये
संविधान में प्रकृति को व्यक्ति माना गया है; बोलीविया में ‘माता भूमि’ के अधिकारों को मनुष्य के अधिकारों से
ऊपर रखा गया है.
10./ महिलाओं पर हिंसाचारः परंपरा के नाम पर स्त्री-भूण हत्या; और कार्यस्थल तथा/अथवा शैक्षिक संस्थानों में वेतन में असमानता और जातीय उत्पीड़न बेरोकटोक जारी है. इसका संबंध आपराधिक न्याय प्रणाली और
सांप्रदायिक और जातिगत हिंसाचार से है. महिलाओं पर होने वाले हिंसाचार को देश की आधी आबादी के ख़िलाफ़ निरंतर और
अघोषित गृह युद्ध मानना ही पड़ेगा. महिलाओं और लड़कियों
को न्याय दिलवाने के लिए सामाजिक और आधिकारिक संगठनों पर दबाव डालने के उद्देश्य
से एक जन आंदोलन, जो न केवल समाज को
बल्कि, आपराधिक न्याय प्रणाली को भी प्रभावित
करे, खड़ा करने की ज़रूरत है,