Subhash Gatade - प्रचारक का स्त्री चिन्तन

जुबां फिसलती है और शायद बहुत अनर्थ करा देती है।
बांगलादेश की जनाब मोदी की ‘सफल यात्रा’ के बाद उनके हिमायती शायद यही सोचते हैं। यह अकारण नहीं कि ‘स्त्री होने के बावजूद शेख हसीना द्वारा किए गए कामों की तारीफ कर’ बुरी तरह आलोचना का शिकार हुए प्रधानमंत्री मोदी के चीअरलीडर्स का कहना रहा है कि यह जुबां फिसलने का मामला है और उसकी इतनी आलोचना ठीक नहीं है।
अगर सन्देह का लाभ देकर इस मसले पर बात न भी की जाए, मगर आप इस मौन की किस तरह व्याख्या करेंगे कि उन छत्तीस घंटों में उन्होंने एक बार भी सुश्री इंदिरा गांधी का नाम नहीं लिया, जो बांगलादेश की मुक्ति के वक्त भारत की प्रधानमंत्री थीं । अटल बिहारी वाजपेयी के नाम बांगलादेश सरकार द्वारा दिया गया पुरस्कार स्वीकार किया, मगर बांगलादेश की मुक्ति के बाद जिन वाजपेयी ने उन्हीं इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’ के तौर पर सम्बोधित किया था, उनका एक बार नामोल्लेख तक नहीं किया।
यह निश्चित ही भुलने का मामला नहीं था, अगर ऐसा होता तो उनके साथ इतना बड़ा दल गया था, वह उन्हें अवश्य याद दिलाता। दरअसल यह उपरोक्त नाम को लेकर जुबां को सिल देने का मामला था। पूछा जाना चाहिए कि क्या होठों पर कायम चुप्पी क्या राजनीतिक क्षुद्रता का प्रतिबिम्बन था ? या उसके कुछ और मायने थे।
निश्चित ही विदेशों में जाकर देश की पहली हुकूमतों के बारे में विवादास्पद वक्तव्य देने के मामले में संकोच न करनेवाले मोदी, जो यही बताना चाहते हैं कि किस तरह उनके पी एम बनने के बाद ही भारत का गौरवशाली इतिहास शुरू हुआ है, आखिर किस जुबां से भाजपा की चिरवैरी कांग्रेस की सबसे सफल प्रधानमंत्री में शुमार की जानेवाली सुश्री इंदिरा गांधी का जिक्र करते। मगर मामला महज राजनीतिक विरोध का नहीं है। वह उस पुरूषसत्तात्मक चिन्तन का भी परिचायक है, जिसके अन्तर्गत स्त्रिायों के योगदान पर हमेशा ही मौन बरता जाता रहा है। और अपनी ‘56 इंच की छाती’ का जिक्र कर एक भोंडे मर्दवादी विमर्श को बढ़ावा देने वाले जनाब मोदी से हम यह उम्मीद कैसे कर सकते थे कि वह अपने से सफल किसी महिला का जिक्र करते।
कोई यह कह सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी के स्त्राी चिन्तन की झलक समग्रता में पाने के लिए बातचीत को बांगलादेश यात्रा तक सीमित नहीं रखा जा सकता। बिल्कुल सही। आइये, उनके व्यक्तिगत एवं राजनीतिक जीवन के प्रमुख प्रसंगों पर निगाह डाल कर यह समझने की कोशिश करते हैं कि बांगलादेश में उनके विवादास्पद उदगार या उनके सूचक मौन का सामान्यीकरण किया जा सकता है या नहीं।
सुश्री जसोदाबेन मोदी, जो उनकी पत्नी हैं और जिनसे वह शादी के कुछ समय बाद ही अलग हुए हैं, उनके मामले को लें। यह विदित है कि 2014 के चुनावों में पहली दफा उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि वह ‘शादीशुदा’ हैं वरना इसके पहले के चुनावों में उन्होंने अपना फार्म भरते वक्त उस कालम को खुला छोड़ दिया था। शादी के बाद सम्बन्धों में अलगाव होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, दोनों का अलग होना भी कोई अजूबा मामला नहीं है मगर इस बात को कैसे समझा जाए कि उन्होंने इस बात की ताईद करने में कि वह शादीशुदा रहे हैं, डेढ दशक बीता दिया। यह भी विदित है कि उन्होंने इस बार मजबूरी में ही इस बात का उल्लेख किया क्योंकि उन्हें डर था कि ‘गलतबयानी’ के लिए उनका फार्म खारिज न हो जाए।
आप उस स्त्राी की मनःस्थिति समझें, जिसका पति किसी अलसुबह उससे अलग हो जाता है और चूंकि अपनी खास किस्म की छवि प्रोजेक्ट करना चाहता है, इसलिए अपने आप को अविवाहित बताता  है। क्या यह स्त्राीसमुदाय के प्रति मन में व्याप्त सम्मान का प्रतिबिम्बन कहा जाएगा या उसे उसी श्रेणी में रखा जाएगा जिसके तहत हजारों महिलाएं आज परित्यक्ताओं का जीवन जी रही हैं क्योंकि उनके पति ‘बेहतर विकल्प’ की तलाश में कही निकल गए और उन्होंने इतनी इन्सानियत भी नहीं बरती कि पहले के सम्बन्धों के प्रति अपनी नैतिक एवं सामाजिक जिम्मेदारी को निबाह लंे।
या आप उस युवती के राज्य के एण्टी टेररिस्ट स्क्वाड के जरिए स्नूपिंग अर्थात निगरानी का मामला लें, जिसे उपरी आदेशों से अंजाम दिया गया था जिन दिनों जनाब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्राी थे।  किसी निजी नागरिक के जीवन में दखल देने के – जबकि न वह किसी आपराधिक गतिविधियों में या आतंकी गतिविधियों में शामिल रहा हो -इस तरीके की कैसे व्याख्या की जा सकती है ?
मोदी की वाकपटुता की उनके समर्थकों की तरफ से तारीफ होती रहती है। 2014 के चुनावों के ऐलान के पहले दिल्ली के रोहिणी इलाके में आयोजित एक सभा में उनकी इसी वाकपटुता की झलक देखने को मिली थी, जब उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्राी जनाब मनमोहन सिंह को पाकिस्तान के प्रधानमंत्राी द्वारा ‘देहाती औरत’ के तौर पर सम्बोधित करने की बात की थी और यही संकेत दिया था कि मनमोहन किस तरह मौनमोहन हैं अर्थात कुछ बोलते नहीं हैं। कहने का तात्पर्य उनके हिसाब से ‘देहाती औरत’ का सम्बोधन एक ‘गाली’ था।
प्रश्न उठता था कि क्या वाकई देहाती औरत कहलाया जाना एक ‘गाली’ था या यह किसी के एकांगी नज़रिये का परिचायक था। उन्हीं दिनों काफिला डाट आर्ग पर लिखे अपने एक आलेख में प्रख्यात लेखक शुद्धब्रत सेनगुप्ता ने इस सम्बन्ध में तथ्यगत जानकारी दी थी। उनके हिसाब से 2011 की जनगणना के हिसाब से भारत में 40.51 करोड ग्रामीण महिलाएं हैं। देश के हाशिये पर पड़े मजदूरों का 90 फीसदी उन्हीें से आता है, 11 फीसदी ग्रामीण घर की कर्णधार वहीं हैं। वे पानी लाने के लिए मीलों चलती हैं, खेत में काम करती है, सन्तानों का लालन पालन करती हैं, अपने बच्चों को स्कूल भेजती हैं, सामन्ती पूर्वाग्रहों से लड़ती हैं, पूंजीवादी विस्थापन का या राज्य आतंक का मुकाबला करती हैं। उन्होंने जोड़ा था कि ‘कोई कहता कि किसी मुल्क का प्रधानमंत्राी भारत की देहाती औरत की तरह है, तो मैं उसे प्रशंसा के तौर पर लेता क्योंकि अपमान, संरचनागत हिंसा और असमानता झेलते हुए ग्रामीण महिलाएं जिन्दा हैं, हाडतोड़ मेहनत कर रही हैं, गा रही हैं, हंस रही हैं..’
2002 के गुजरात के ‘दंगों’ के वक्त जिन दिनों जनाब मोदी खुद राज्य के मुख्यमंत्राी थे और लाखों लोगों को शरणार्थी शिविरों में रहना पड़ा था, उस वक्त के चुनावी सभाओं में उनके स्त्राीविषयक चिन्तन की सीमाओं की या अन्दर से गहरे व्याप्त पूर्वाग्रहों की उसी तरह की झलक मिली थी जब उन्होंने इन शरणार्थी शिविरों को ‘बच्चा पैदा करने की फैक्टरी’ कहा था और एक तरह से न केवल तमाम पीडि़तों का माखौल उड़ाया था बल्कि समूचे स्त्राी समुदाय को अपमानित किया था।
‘हरी अनन्त, हरी कथा अनन्तः‘। प्रधानमंत्राी मोदी के स्त्राीचिन्तन के बारे में कई अन्य बातें कही जा सकती हैं, जो यह बताती हैं कि उनकी प्रोजेक्टेड छवि और यथार्थ में गहरा अन्तराल है।
मगर क्या इस एकांगी चिन्तन के लिए जनाब मोदी को अकेले जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। निश्चित ही नहीं। अपनी किशोरावस्था में राष्टीय स्वयंसेवक संघ – जो हिन्दू पुरूषों का संगठन है – से पूरावक्ती कार्यकर्ता/प्रचारक के तौर पर जुड़े मोदी के चिन्तन पर शाखाओं में सुनाये जानेवाले बौद्धिकों और वहां गढ़े जा रहे मानस की गहरी छायायें देखी जा सकती हैं, जिसकी गहराई में पड़ताल आवश्यक है, मगर वह किस्सा फिर कभी।


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