कुलदीप कुमार - भावनाएं भड़काने का खेल

जनसत्ता 10 फरवरी, 2013: 
चुनाव और राममंदिर का चोली-दामन का साथ है। इधर चुनाव नजदीक आए और उधर संघ परिवार को राममंदिर की याद आने लगी। क्योंकि भारतीय जनता पार्टी का चुनाव से सबसे अधिक संबंध है, इसलिए उसे राममंदिर की याद भी शिद्दत से आती है। लोग भूले नहीं कि 2004 के चुनाव के समय भी इसी तरह की कवायद की गई थी। कहावत है कि काठ की हांडी एक बार चढ़ती है, बार-बार नहीं। लेकिन लगता है, इस देश की मिट्टी की सुगंध से रची-बसी होने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी को इस कहावत पर यकीन नहीं। उसे लगता है कि वह काठ की हांडी को बार-बार चूल्हे पर चढ़ा सकती है। संयोगवश दुबारा पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद राजनाथ सिंह को इलाहाबाद के कुंभ मेले में राममंदिर निर्माण के लिए भाजपा की प्रतिबद्धता याद आ गई। आशा के अनुरूप राजग के संयोजक और जनता दल (एकी) के अध्यक्ष शरद यादव का तुरंत बयान आ गया कि राजग के एजेंडे पर मंदिर नहीं है। 

लेकिन स्पष्ट है कि राजनाथ सिंह का बयान अचानक नहीं आया है। शायद संघ को लग रहा है कि नितिन गडकरी के सवाल पर संगठन के स्तर पर गच्चा खाने के बाद उसे भाजपा पर विचारधारा के स्तर पर दबाव डालना चाहिए और उसे स्पष्ट हिंदुत्ववादी एजेंडे पर वापस लाना चाहिए। उनके बयान के ठीक पहले विश्व हिंदू परिषद के उग्र नेता और अंतरराष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष प्रवीण तोगड़िया के मुसलिम-विरोधी बयान आए। तोगड़िया का कहना है कि अगर वे प्रधानमंत्री बने, तो मुसलमानों का मताधिकार छीन लेंगे और उन्हें किसी भी संवैधानिक पद पर नहीं रहने देंगे। वे विहिप की हितचिंतन सभा में बोल रहे थे। 
यहां यह बता दूं कि विहिप का गठन एक ट्रस्ट के तौर पर हुआ था। इसलिए इसमें सदस्यों की भर्ती नहीं की जा सकती। इसके कार्यकर्ता ‘हितचिंतक’ कहलाते हैं। तोगड़िया के बयान पर अधिकतर लोगों की प्रतिक्रिया यह है कि खुदा गंजे को नाखून नहीं देता। तोगड़िया के प्रधानमंत्री बनने की जब कोई संभावना ही नहीं है तो फिर ऐसे बयानों को गंभीरता से क्यों लिया जाए। उनकी तो आदत ही इस तरह के भड़काऊ बयान देने की है। 

प्रवीण तोगड़िया के मुसलिम-विरोधी बयान अचानक नहीं आए हैं। इनके पीछे संघ का डीएनए है। मुसलमानों को मताधिकार न देने का फैसला तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर 1939 में ही कर चुके थे, जब उन्होंने अपनी पुस्तिका ‘वी आॅर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ (हम या हमारी परिभाषित राष्ट्रीयता) में लिखा था कि भारत में रहने वाले गैर-हिंदुओं को हिंदू संस्कृति और भाषा अपनानी होगी, हिंदू धर्म का आदर-सम्मान करना होगा, इस देश के प्रति कृतघ्नता और असहिष्णुता छोड़ कर इसके प्रति प्रेम और भक्ति की सकारात्मक भावना विकसित करनी होगी। यानी ‘उन्हें विदेशी बने रहना छोड़ना होगा। वरना वे इस देश में रह तो सकेंगे, लेकिन हिंदू राष्ट्र के नीचे पूरी तरह से पराधीन होकर। उन्हें विशेषाधिकार तो क्या, नागरिक के अधिकार भी प्राप्त नहीं होंगे।’ 

इसी पुस्तक में हिटलर की भी तारीफ की गई है और कहा गया है कि जर्मनी ने दिखा दिया कि किस तरह वे भिन्न जातियां और नस्लें जिनके सांस्कृतिक अंतर मूलगामी हैं, एक राष्ट्र के बंधन में नहीं बंध सकतीं। गोलवलकर का कहना था कि हिटलर और उसके जर्मनी से भारत बहुत कुछ सीख सकता है। 

संघ और भाजपा ने कभी इस पुस्तक से अपने को अलगाया नहीं। केवल इसे छापना और प्रसारित करना बंद कर दिया, क्योंकि स्वतंत्र भारत में, खासकर अस्सी और नब्बे के दशकों में भाजपा के एक बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बाद, इसके निष्कर्षों को ज्यों का त्यों पेश करना राजनीतिक दृष्टि से जोखिम का काम था। अयोध्या आंदोलन के दौरान जो नारा सुनने में आया था और अब भी आ जाता है- ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’- उसके बीज गोलवलकर के उस अंतिम भाषण में हैं जो उन्होंने 1972 में संघ के चिंतन शिविर में दिया था। 

जो लोग इस भ्रम में हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी बहुत नरम और लालकृष्ण आडवाणी गरम विचारों के हैं, उन्हें 1970 के दशक के वाजपेयी के संसद में दिए भाषणों को पढ़ना चाहिए, खासकर उन भाषणों को जो उन्होंने सांप्रदायिक दंगों के बाद हुई बहसों के दौरान दिए। वाजपेयी और आडवाणी एक वैचारिक वृत्त के भीतर रहे हैं। एक कुशल राजनेता होने के कारण वाजपेयी में लचीलापन अधिक रहा है, राजनीति में सबको साथ लेकर चलने की जरूरत को वे औरों से अधिक अच्छी तरह समझते थे, और इसीलिए उनकी व्यापक स्वीकार्यता बनी। लेकिन संघ की  हिंदुत्ववादी विचारधारा के डीएनए से वे कभी मुक्त नहीं रहे। उनकी कविताओं में भी इसकी स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। 

राजनीतिक मजबूरी के कारण अयोध्या आंदोलन के कंधों पर चढ़ कर सत्ता में आने के बावजूद भाजपा को सरकार बनाने और चलाने के लिए राममंदिर के मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालना पड़ा और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने, आडवाणी नहीं। संविधान से धारा 370 को हटवाने और सभी के लिए समान नागरिक संहिता लागू कराने के उसके मूल लक्ष्य भी पीछे चले गए। लेकिन यह सोचना हमारी भूल होगी कि भाजपा या संघ परिवार ने इन्हें भुला दिया है। 

शब्दों से खेलने और भाषा को अपने उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने में संघ परिवार का कोई जवाब नहीं है। 1990 के दशक में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को चुनौती देने वाली राष्ट्रव्यापी बहस छेड़ते हुए आडवाणी ने   भाजपा को सच्ची धर्मनिरपेक्ष पार्टी बताया और कहा था कि शेष ‘छद्म-धर्मनिरपेक्ष’ हैं। लेकिन इससे भाजपा धर्मनिरपेक्ष नहीं बन गई। उसके कुछ नेताओं का संघ के साथ टकराव वैचारिक नहीं, सांगठनिक कारणों से होता रहा है, क्योंकि उन्हें पार्टी के रोजमर्रा के कामकाज में संघ की दखलंदाजी पसंद नहीं। लेकिन जब भी संघ किसी बात पर अड़ा है, भाजपा नेताओं को उसके सामने झुकना पड़ा है। जिन्ना विवाद के चलते लालकृष्ण आडवाणी जैसे शीर्षस्थ नेता को जिस तरह के मुखर और तीखे विरोध का सामना करना पड़ा और अंतत: अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा, वह संघ के अड़ने के कारण ही था। 

गोलवलकर की खूबी थी कि वे अपने विचारों को स्पष्टता के साथ व्यक्त करते थे। उनके लेखों और भाषणों का एक संग्रह ‘विचार नवनीत’ है। इसमें एक अध्याय का शीर्षक है ‘आंतरिक संकट’। इसके तीन उप-अध्याय हैं- मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट। अब आप समझ सकते हैं कि संघ की दृष्टि में मुसलमान और ईसाई क्या हैं। गोलवलकर बार-बार यह भी कहते थे कि भारत कोई धर्मशाला नहीं है जिसमें कोई भी आकर रहने लगे। कुछ लोगों को लग सकता है कि संघ और भाजपा अब गोलवलकर के विचारों से कहीं आगे जा चुके हैं और इस समय उनके कहे और लिखे को याद करना इन संगठनों के प्रति अन्याय होगा। लेकिन हकीकत इससे भिन्न है। अल्पसंख्यकों की देशभक्ति के प्रति संघ परिवार के सदस्य संगठनों को अब भी संदेह है। कम्युनिस्टों की देशभक्ति तो उनकी निगाह में हमेशा से संदिग्ध रही है। 

भाजपा का अध्यक्ष बनने के बाद राजनाथ सिंह ने कहा कि उनकी पार्टी को मुसलिम-विरोधी न समझा जाए। उनकी इस अपील का मुसलिम समुदाय पर कोई असर होगा, इसकी कोई संभावना नहीं लगती। लोग शब्दों को नहीं, काम को देखते हैं। भाजपा कुछ भी कहे, लोग उसे उसकी करनी के आधार पर पहचानेंगे। एक तरफ राजनाथ सिंह मुसलमानों से अपील कर रहे हैं कि वे भाजपा को अपने खिलाफ न समझें, दूसरी ओर उन्हें नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करने से भी गुरेज नहीं। ऐसे में मुसलिम समुदाय उनकी बात को गंभीरता से कैसे लेगा? क्या किसी ने प्रवीण तोगड़िया के बयानों की भर्त्सना की? महाराष्ट्र पुलिस तब जागी जब मीडिया में तोगड़िया के बयानों पर टीका-टिप्पणी हुई। लेकिन अकबरुद्दीन ओवैसी को तो गिरफ्तार किया गया, तोगड़िया को नहीं। ऐसे में मुसलिम समुदाय कैसे मान ले कि स्वाधीन और लोकतांत्रिक भारत में उसके साथ समानता का बर्ताव हो रहा है? ओवैसी और तोगड़िया के लिए दोहरे मानदंड क्यों? 

शिवसेना के प्रवक्ता संजय राऊत इसका जवाब यह कह कर देते हैं कि तोगड़िया के बयान ओवैसी की प्रतिक्रिया में आए हैं। इसलिए दोनों में फर्क करने की जरूरत है। यह वही तर्क है जो 2002 में गुजरात में दिया गया था- प्रतिक्रिया में किया गया अपराध कम संगीन होता है। लेकिन क्या हम इस तरह के तर्कों को मान सकते हैं? क्या देश का नागरिक समाज और राजसत्ता किसी भी समुदाय के खिलाफ विषवमन की इजाजत दे सकते हैं? इस प्रसंग में सबसे चिंताजनक बात यह है कि आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकारों ने ओवैसी और तोगड़िया के खिलाफ रपट दर्ज करने में भी कई दिन लगा दिए। अगर सजग मीडिया ने इनके बयानों की तरफ ध्यान न खींचा होता, तो शायद रपट दर्ज ही न होती।
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/38582-2013-02-10-07-16-54







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