गाँधी क्यों ..
गाँधी क्यों ..
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पुरुषोत्तम अग्रवाल
जरूरत है मनुष्य जाति को सुलभ नवीनतम विज्ञान और गां धी की कल्पना के ग्राम-गणतंत्र के बीच एक नया संतु लन हासिल करने की। इसे हासिल करने के लिए समाज का पूर्ण रूपांतरण जरूरी है। रूपां
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पुरुषोत्तम अग्रवाल
जरूरत है मनुष्य जाति को सुलभ नवीनतम विज्ञान और गां धी की कल्पना के ग्राम-गणतंत्र के बीच एक नया संतु लन हासिल करने की। इसे हासिल करने के लिए समाज का पूर्ण रूपांतरण जरूरी है। रूपां
तरण सामाजिक मूल्यों और प्रतीकों का, शिक्षा-व्यवस्था और ऊर्जा-प्रबंधन का, वैज्ञानिक और औद्योगिक शोध का, और तमाम संस्थाओं तथा प्रक्रियाओं का। संक्षेप में, लक्ष्य हो ना चाहिए- सेटेलाइट्स के साथ गांधी’
गांधी? क्यों..?
क्योंकि गांधीजी को मानें न मानें। यह सचाई अपनी जगह है कि धरती जरूरतें सबकी पूरी कर सकती है लेकिन लोभ एक आदमी का भी तृप्त नहीं कर सकती। गांधीजी के लिए अहिंसा का अर्थ ही था, संयम और करु णा। वे जानते थे कि ‘मनुष्य क्षण भर भी बाह्य हिंसा के बिना नहीं जी सकता। खाते-पीते, उठते-बैठते, सब कर्मों से, इच्छा से हो या अनिच्छा से; कुछ न कुछ हिंसा तो वह करता ही रहता है।’ यह जानने के साथ ही गांधीजी चाहते यह थे कि ‘हिंसा से निकलने का महाप्रयास हो, मनुष्य की भावना में करु णा हो’। करु णा यानी दूसरे के दुख का अहसास, केवल अपनी या अपने सरीखों की नहीं, सबकी चिंता। ऐसी करु णा मनुष्य में होगी तो मनुष्य की ‘प्रवृत्ति में निरंतर संयम की भी वृद्धि होगी’। और गांधीजी की कल्पना के अहिंसक समाज की ओर मनुष्यता बढ़ सकेगी।
गांधी के विचार पर स्वतंत्र चिंतन करें : बिनोवा
गांधीजी के जीवनकाल में भी, और बाद में भी, बहुत-से लोग उन्हें असंभव स्वप्नों का अव्यावहारिक द्रष्टा मानते रहे हैं। कुछ लोग अपने आपको परम पवित्र मानते हुए, दूसरों को नैतिक रूप से न्यून सिद्ध करने के लिए भी गांधीजी का उपयोग करते रहे हैं। यह बात समझने के लिए कुछ शाकाहारवादियों का आक्रामक लहजा याद कर सकते हैं या कुछ लोगों की बात-बात पर अनशन करने की अदा। गांधीजी को संभावनाएं दिखाने वाले दर्पण के बजाय उन्हें नैतिक आत्मविश्वासहीनता के माध्यम में बदल दिया जाता है। ऐसे में विनोबा की याद आती है, जिन्होंने याद दिलाया था, ‘यह आदमी कोई पुरानी किताब नहीं था, जिसमें नया कुछ न जुड़े, जिसके बस नये संस्करण निकलते रहें। गांधीजी आज होते तो क्या करते, क्या न करते; यह सही सवाल और सही तरीका नहीं है। उनसे विचार मिला, ऐसा मान कर स्वतंत्र चिंतन करना चाहिए’। गांधीजी का मूल विचार है-अहिंसा। और अहिंसा, गांधीजी के लिए परिभाषित होती है, करु णा और संयम से। 21वीं सदी में पहुंच चुकी मानव-सभ्यता अब जान चुकी है कि उपभोग पर किसी न किसी तरह की हद बांधे बिना प्रकृति ही नहीं बचेगी, मनुष्य की तो बात ही क्या? और ‘पीर पराई’ जाने बिना कोई व्यवस्था नहीं चलेगी, वह स्वयं को नाम चाहे लोकतंत्र का दे चाहे साम्यवाद या समाजवाद का। इस मूल विचार के कई रूप पिछले साठेक सालों में विकसित किए गए हैं। इसीलिए गांधीजी से प्रेरित होने का दावा करने वालों में तरह-तरह के लोग रहे हैं। रंगभेद के विरोध में आंदोलन चलाने वाले मार्टनि लूथर किंग से लेकर हिंसापरक क्रांति का नेतृत्त्व करने के बावजूद स्वयं को गांधी की संतति में गिनने वाले हो ची मिन्ह तक। फ्यूचरोलॉजिस्ट एवेलिन टॉफलर से लेकर समाजकर्मी फैरनांडो फैराटा तक।
विकास की अवधारणा में मानवीय पहलू आएंगे
टॉफलर की किताब ‘दि र्थड वेब’ 1980 में प्रकाशित हुई थी, इसमें वे सूचना-क्रांति की वे संभावनाएं उसी समय देख पा रहे थे, जिनकी सचाइयों में हम आज जी रहे हैं। किताब के अंतिम अध्याय का शीर्षक ही सब कुछ कह देता है-‘गांधी विद् सेटेलाइट्स’। अपनी बात स्पष्ट करते हुए टॉफलर कहते हैं,‘कल की विकास- रणनीतियां वाशिंगटन, मॉस्को, पेरिस या जेनेवा में नहीं; अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका में बनेंगी..ये रणनीतियां विकास की उस धारणा को रद्द करेंगी, जिसमें महत्त्व केवल आर्थिक तरक्की को दिया जाता है और मानवीय व्यक्तित्व के बाकी सारे आयामों की उपेक्षा की जाती है’। टॉफलर की जो कल्पना थी, उसकी दिशा में बहुत बड़े न सही, कुछ कदम तो मजबूरी में या खुशी से साधारण लोगों को ही नहीं, खुद को दुनिया का मालिक समझने वालों को भी उठाने ही पड़े हैं। विकास की नीतियां बनाने वाले यह जताने को या कम से कम पाखंड करने को बाध्य हुए हैं कि वे कोरे आर्थिक विकास के लिए ही नहीं, पर्यावरण और व्यापक जीवन-संदर्भों के बारे में भी सोचते हैं। वे पाखंड करने पर बाध्य हैं क्योंकि अब पर्यावरण का सवाल जीवन-मरण का सवाल है। समाज और व्यक्ति; परंपरा और प्रगति के बीच संतुलन की खोज का सवाल भी जीवन-मरण का प्रश्न बन चला है।
अहिंसा दृष्टि का विकल्प क्या है
ऐसे में करु णा और संयम-यानी गांधी जी की अहिंसा दृष्टि-का विकल्प क्या है? मार्टनि लूथर किंग पिछली सदी के सातवें दशक में ही चेतावनी दे रहे थे-‘चुनाव अब हिंसा और अहिंसा के बीच नहीं, अहिंसा और सर्वनाश के बीच करना होगा’। गांधीजी की एक-एक बात से सहमत होना न तो संभव है और न आवश्यक। बिनोवा को फिर याद करें, ‘यह सवाल ही गलत है कि गांधीजी होते तो क्या करते?’ सवाल यह है कि क्या हम गांधीजी की मूल अंतर्दृष्टि को सार्थक और प्रेरणादायी पाते हैं’? 21वीं सदी में ‘गांधी क्यों?’- इस सवाल का जवाब इस पर निर्भर करता है कि हमें एलविन टॉफलर की इस बात में दम नजर आता है या नहीं कि ‘जरूरत है मनुष्य जाति को सुलभ नवीनतम विज्ञान और गांधी की कल्पना के ग्राम-गणतंत्र के बीच एक नया संतुलन हासिल करने की। इसे हासिल करने के लिए समाज का पूर्ण रूपांतरण जरूरी है। रूपांतरण सामाजिक मूल्यों और प्रतीकों का, शिक्षा-व्यवस्था और ऊर्जा- प्रबंधन का, वैज्ञानिक और औद्योगिक शोध का, और तमाम संस्थाओं तथा प्रक्रियाओं का। संक्षेप में, लक्ष्य होना चाहिए- सेटेलाइट्स के साथ गांधी’।
गांधी? क्यों..?
क्योंकि गांधीजी को मानें न मानें। यह सचाई अपनी जगह है कि धरती जरूरतें सबकी पूरी कर सकती है लेकिन लोभ एक आदमी का भी तृप्त नहीं कर सकती। गांधीजी के लिए अहिंसा का अर्थ ही था, संयम और करु णा। वे जानते थे कि ‘मनुष्य क्षण भर भी बाह्य हिंसा के बिना नहीं जी सकता। खाते-पीते, उठते-बैठते, सब कर्मों से, इच्छा से हो या अनिच्छा से; कुछ न कुछ हिंसा तो वह करता ही रहता है।’ यह जानने के साथ ही गांधीजी चाहते यह थे कि ‘हिंसा से निकलने का महाप्रयास हो, मनुष्य की भावना में करु णा हो’। करु णा यानी दूसरे के दुख का अहसास, केवल अपनी या अपने सरीखों की नहीं, सबकी चिंता। ऐसी करु णा मनुष्य में होगी तो मनुष्य की ‘प्रवृत्ति में निरंतर संयम की भी वृद्धि होगी’। और गांधीजी की कल्पना के अहिंसक समाज की ओर मनुष्यता बढ़ सकेगी।
गांधी के विचार पर स्वतंत्र चिंतन करें : बिनोवा
गांधीजी के जीवनकाल में भी, और बाद में भी, बहुत-से लोग उन्हें असंभव स्वप्नों का अव्यावहारिक द्रष्टा मानते रहे हैं। कुछ लोग अपने आपको परम पवित्र मानते हुए, दूसरों को नैतिक रूप से न्यून सिद्ध करने के लिए भी गांधीजी का उपयोग करते रहे हैं। यह बात समझने के लिए कुछ शाकाहारवादियों का आक्रामक लहजा याद कर सकते हैं या कुछ लोगों की बात-बात पर अनशन करने की अदा। गांधीजी को संभावनाएं दिखाने वाले दर्पण के बजाय उन्हें नैतिक आत्मविश्वासहीनता के माध्यम में बदल दिया जाता है। ऐसे में विनोबा की याद आती है, जिन्होंने याद दिलाया था, ‘यह आदमी कोई पुरानी किताब नहीं था, जिसमें नया कुछ न जुड़े, जिसके बस नये संस्करण निकलते रहें। गांधीजी आज होते तो क्या करते, क्या न करते; यह सही सवाल और सही तरीका नहीं है। उनसे विचार मिला, ऐसा मान कर स्वतंत्र चिंतन करना चाहिए’। गांधीजी का मूल विचार है-अहिंसा। और अहिंसा, गांधीजी के लिए परिभाषित होती है, करु णा और संयम से। 21वीं सदी में पहुंच चुकी मानव-सभ्यता अब जान चुकी है कि उपभोग पर किसी न किसी तरह की हद बांधे बिना प्रकृति ही नहीं बचेगी, मनुष्य की तो बात ही क्या? और ‘पीर पराई’ जाने बिना कोई व्यवस्था नहीं चलेगी, वह स्वयं को नाम चाहे लोकतंत्र का दे चाहे साम्यवाद या समाजवाद का। इस मूल विचार के कई रूप पिछले साठेक सालों में विकसित किए गए हैं। इसीलिए गांधीजी से प्रेरित होने का दावा करने वालों में तरह-तरह के लोग रहे हैं। रंगभेद के विरोध में आंदोलन चलाने वाले मार्टनि लूथर किंग से लेकर हिंसापरक क्रांति का नेतृत्त्व करने के बावजूद स्वयं को गांधी की संतति में गिनने वाले हो ची मिन्ह तक। फ्यूचरोलॉजिस्ट एवेलिन टॉफलर से लेकर समाजकर्मी फैरनांडो फैराटा तक।
विकास की अवधारणा में मानवीय पहलू आएंगे
टॉफलर की किताब ‘दि र्थड वेब’ 1980 में प्रकाशित हुई थी, इसमें वे सूचना-क्रांति की वे संभावनाएं उसी समय देख पा रहे थे, जिनकी सचाइयों में हम आज जी रहे हैं। किताब के अंतिम अध्याय का शीर्षक ही सब कुछ कह देता है-‘गांधी विद् सेटेलाइट्स’। अपनी बात स्पष्ट करते हुए टॉफलर कहते हैं,‘कल की विकास- रणनीतियां वाशिंगटन, मॉस्को, पेरिस या जेनेवा में नहीं; अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका में बनेंगी..ये रणनीतियां विकास की उस धारणा को रद्द करेंगी, जिसमें महत्त्व केवल आर्थिक तरक्की को दिया जाता है और मानवीय व्यक्तित्व के बाकी सारे आयामों की उपेक्षा की जाती है’। टॉफलर की जो कल्पना थी, उसकी दिशा में बहुत बड़े न सही, कुछ कदम तो मजबूरी में या खुशी से साधारण लोगों को ही नहीं, खुद को दुनिया का मालिक समझने वालों को भी उठाने ही पड़े हैं। विकास की नीतियां बनाने वाले यह जताने को या कम से कम पाखंड करने को बाध्य हुए हैं कि वे कोरे आर्थिक विकास के लिए ही नहीं, पर्यावरण और व्यापक जीवन-संदर्भों के बारे में भी सोचते हैं। वे पाखंड करने पर बाध्य हैं क्योंकि अब पर्यावरण का सवाल जीवन-मरण का सवाल है। समाज और व्यक्ति; परंपरा और प्रगति के बीच संतुलन की खोज का सवाल भी जीवन-मरण का प्रश्न बन चला है।
अहिंसा दृष्टि का विकल्प क्या है
ऐसे में करु णा और संयम-यानी गांधी जी की अहिंसा दृष्टि-का विकल्प क्या है? मार्टनि लूथर किंग पिछली सदी के सातवें दशक में ही चेतावनी दे रहे थे-‘चुनाव अब हिंसा और अहिंसा के बीच नहीं, अहिंसा और सर्वनाश के बीच करना होगा’। गांधीजी की एक-एक बात से सहमत होना न तो संभव है और न आवश्यक। बिनोवा को फिर याद करें, ‘यह सवाल ही गलत है कि गांधीजी होते तो क्या करते?’ सवाल यह है कि क्या हम गांधीजी की मूल अंतर्दृष्टि को सार्थक और प्रेरणादायी पाते हैं’? 21वीं सदी में ‘गांधी क्यों?’- इस सवाल का जवाब इस पर निर्भर करता है कि हमें एलविन टॉफलर की इस बात में दम नजर आता है या नहीं कि ‘जरूरत है मनुष्य जाति को सुलभ नवीनतम विज्ञान और गांधी की कल्पना के ग्राम-गणतंत्र के बीच एक नया संतुलन हासिल करने की। इसे हासिल करने के लिए समाज का पूर्ण रूपांतरण जरूरी है। रूपांतरण सामाजिक मूल्यों और प्रतीकों का, शिक्षा-व्यवस्था और ऊर्जा- प्रबंधन का, वैज्ञानिक और औद्योगिक शोध का, और तमाम संस्थाओं तथा प्रक्रियाओं का। संक्षेप में, लक्ष्य होना चाहिए- सेटेलाइट्स के साथ गांधी’।