कुमार प्रशांत: यह कलम को कमाने का वक्त है
मुश्ते खाक हैं मगर अांधी के साथ हैं /
बुद्दू मियां भी हजरत-ए-गांधी के साथ हैं !
यह कलम को कमाने का वक्त है
बुद्दू मियां भी हजरत-ए-गांधी के साथ हैं !
यह कलम को कमाने का वक्त है
बहुत समय के बाद लेखकों ने हवा का ढंग, अपनी कलम का रंग अौर अपनी स्याही का तंज देखने की कोशिश की है ! इन दोनों के बिना कोई कलमघिस्सू लेखक कैसे हो सकता है, यह मैं जानता-समझता नहीं हूं फिर भी मैं कलम में अास्था रखता हूं. इसलिए रोज-रोज लेखकों द्वारा लौटाए जा रहे पुरस्कारों-सम्मानों की खबरों में मैं बड़ी संभावना देखता हूं. यह सब मुझे वैसा ही लग रहा है जैसा तब लगता है जब बारिश की संभावना ले कर तेज हवाएं चलती हैं अौर सूखे पत्तों को हवा में उड़ाती हैं. उसमें धूल भी उड़ती है, कचरा भी लेकिन न वह हवा ठहरती है अौर न बारिश की संभावनाएं धूमिल पड़ती हैं. अकबर इलाहाबादी ने कभी ऐसा ही नजारा देखा था जब लिखा था कि मुश्ते खाक हैं मगर अांधी के साथ हैं /बुद्दू मियां भी हजरत-ए-गांधी के साथ हैं !
2002 में, सांप्रदायिक दंगों को अपनी राजनीति का अाधार-भूत तत्व बनाने की कला जिस तरह गुजरात में विकसित हुई, कान तो उसके बाद से ही चौकन्ने रहने लगे थे. कभी ऐसा ही बंगाल में सुहरावर्दी की सरकार ने भी किया था. लेकिन तब गांधी थे; अौर वे राजधर्म का पालन करने की बात कह कर, राज्यधर्म का पालन करने में गर्त हो जाने वालों में नहीं थे. सो उन्होंने सुहरावर्दी की वर्दी भी उतार ली थी अौर उनका सुनहरापन भी खारिज कर दिया था. फिर सुहरावर्दी की हिम्मत नहीं हुई थी कि गांधी के साथ कलकत्ता की सड़कों पर, दंगाग्रस्त भीड़ में घुसें ! लेकिन उस इतिहास में उतरने से बेहतर है कि हम अभी ही बात ही करें. कहानीकार उदयप्रकाश ने जब संताप में अपना सम्मान वापस किया था, तब दादरी की घटना नहीं हुई थी. तब असहमत विचारकों का सर कलम करने की शुरुअात हुई थी - कालबुर्गी उसके नवीनतम शिकार थे ! उदयप्रकाश ने कहा कि हत्या की उस खबर से अौर उसके प्रति लोगों के रवैये से वे एकदम सन्नाटे में रह गये अौर उन्होंने बेहद अकेलापन महसूस किया. उन्होंने इस अकेलेपन का सामना सम्मान का बोझ उतार कर किया. तब भले किसी ने सम्मानवापसी में उदयप्रकाश का साथ नहीं दिया.
लेकिन उन्होंने कहीं हलचल तो खड़ी की ही. वह समय था कि साहित्य अकादमी या संस्कृति मंत्री या सरकार या सरकार के मुखिया को बात संभालने की पहल करनी चाहिए थी. लेकिन गूंगे लोग बहरे भी होते हैं ! साहित्य अकादमी तो कुंभकर्ण है, कुंभकर्णी नींद सोती रही. इन पंक्तियों का लेखक बगैर किसी सम्मान-उपाधि से ग्रस्त, एक अदना-सा कलमकार तो है ही अौर इसने हर अवसर पर, कलम से सरकार व समाज को सावधान करने की, हर संभव कोशिश की है. इसलिए भी उदयप्रकाशजी की पहल ने मुझे जगाया. अशोक वाजपेयी ने भी लगातार यहां-वहां टिप्पणियां लिखीं. दूसरे लोग भी थे कि जो अपने स्तर पर अावाज लगाते रहे. लेकिन नये निजाम ने चलन यह बनाया है कि हर अावाज की ऐसी अनसुनी करो कि वह मर जाए ! घटनाएं लगातार घटती रहीं जो भिन्न सोचने वालों को अपमानित करती रहीं अौर असहमति की अावाज को उपेक्षित करती रहीं. इसलिए ऐसा तो नहीं ही था कि कोई अावाज नहीं थी अौर अचानक मेढ़क टर्राने लगे! जब बारिश के अासार होते हैं तब मेढ़क टर्राते हैं -जरूरी नहीं कि तभी अापको बारिश की बूंदें भी दिखाई दें !
अशोक वाजपेयी ने जब सम्मान अादि वापस किया तो बात कुछ अलग तरह से गूंजी ! गूंज का सबसे पहला प्रत्युत्तर नयनतारा सहगल ने दिया ! वे साफ बोलीं, जोर से बोलीं. मुझे याद अाया कि १९७४ में जब जयप्रकाश ने सामने से अाती तानाशाही को पहचान कर देश को झकझोरने-जगाने का उपक्रम छेड़ रखा था अौर बुद्धिजीवी इस दुविधा में पड़े थे कि किस गली से निकलें, तब विजयलक्ष्मी पंडित अौर उनकी बेटी नयनतारा सहगल ने बयान दे कर ही नहीं, पटना पहुंच कर जयप्रकाश को नैतिक बल दिया था. तो उस साहस से इस साहस की कड़ी जुड़ जाती है अौर हम पहचान पाते हैं कि लेखक हमेशा कलम को तलवार बनाए घूमे यह न जरूरी है अौर न शक्य ही लेकिन इतना जरूर होना चाहिए कि कलम को तलवार बनाने की घड़ी में वह दुम दबाता, सरकता नजर न अाए. हमारे ५० से ज्यादा जिन कलाकारों ने सम्मान अादि वापस किए हैं उन्होंने यही किया है - न इससे कम, न इससे ज्यादा ! यह सरकार से लड़ने याकि किसी को अपमानित करने की पर्दे के पीछे से चली जा रही चाल नहीं है; यह कलमकारों-कलाकारों की निजी अस्वीकृति जाहिर करने की सबसे लोकतांत्रिक सार्वजनिक अभिव्यक्ति है.
निजी असहमति की इस सार्वजनिक उदघोषणा में कितने रचनाकार शामिल हुए हैं, उनमें कौन कहां से अाया है, इनमें कौन नरेंद्र मोदी के समर्थक या विरोधी रहे हैं; कौन किस विचारधारा से जुड़ा है जैसे सवाल अब बेमानी हो चुके हैं. अस्वीकृति में उठे इन हाथों ने राष्ट्रीय शक्ल ही नहीं ले ली है बल्कि ये राष्ट्रमन की अभिव्यक्ति बन गये हैं. हम नामों अौर राज्यों की सूचियां बना भर लेने से इसे समझ नहीं सकेंगे. सत्ता को भी अौर अपना नाम-इकराम जिन्होंने वापस नहीं किया है, उन सबको भी यदि कुछ समझना है तो वह यह कि सत्ता अौर राजनीति अौर उससे बननेवाला अाभामंडल उतना ही सच है जितना पानी का बुलबुला ! सत्ता का हो कि न हो, समाज के लोकतांत्रिक मिजाज का विकास होता रहता है अौर अंतत: वह संस्कृति का रूप अख्तियार कर लेता है. यही संस्कृति है जो अाज अपनी पीड़ा व्यक्त कर रही है. इसे लांक्षित या अपमानित करने की कोई भी कोशिश सफल नहीं होगी क्योंकि यह व्यक्तियों की अावाज नहीं है, विकसित होती जाती भारतीय समाज की अावाज है. कभी कबीर ने तो कभी गालिब ने, कभी गांधी ने तो कभी बुद्ध ने, कभी तुलसी ने तो कभी नानक ने इसकी गांठें बांधी हैं. इसका तानाबाना इस कदर गुंथा हुअा बनता गया है कि इसे बिखरने की हर कोशिश बेपनाह दर्द अौर क्षोभ पैदा करेगी. इसलिए हम सबको यह कबूल करके ही अागे चलना है कि हमारे बीच खींचतान चाहे जितनी हो, हत्या अौर अपमान ( जो भी एक तरह की हत्या ही है !) तक कोई नहीं जाएगा; नहीं जाने दिया जाएगा.
यह बात कौन कहेगा ? हमने लोकतंत्र में यह भूमिका सरकार को सौंपी है. सरकार है क्या इसके सिवा कि वह चलते खेल के मैदान में भागती-दौड़ती अंपायर है जिसका काम ही है कि जिधर से भी, जरा सी भी गलती हो तो वह सीटी बजाए ! ' चूके तो सीटी बजेगी अौर हम खेल से बाहर कर दिए जाएंगे !' यह अहसास समाज में बना रहे तो खेल भी चलता रहता है अौर अानंद भी. शर्त यह है कि सीटी बजाने में देरी न हो, पक्षपात न हो ! वह हो तो ? लोकतंत्र में हमने दूसरी व्यवस्था बनाई है कि अदालत है, अखबार है कि जिसे चुप्पी तोड़ने अौर पक्षपात रोकने का काम करना चाहिए. पहली व्यवस्था संविधानसम्मत है, दूसरी व्यवस्था संविधान की जनक है ! लेकिन वहां भी चूक या विभ्रम हो तो लोकतंत्र की अाखिरी अदालत लोगों की होती ही है - लोकमत की अदालत ! यह सबसे बड़ी अौर एकदम अाखिरी अदालत है जिसका कोई एक दावेदार नहीं है. यह परिस्थितियों के गर्भ से पैदा होती है अौर राह बना कर-दिखा कर अोट हो जाती है. यहां हमारी सामूहिक पीड़ा की गूंज भी उठती है अौर हमारा सामूहिक संकल्प भी अाकार लेता है. अच्छी सरकार का चरित्र ही है कि वह लोकमत की तरफ कान भी अौर ध्यान भी लगाए.
रचनाकारों के सम्मान-पुरस्कार-पद अादि छोड़ने को हम गलत अादि कहेंगे या यह सवाल उठाएंगे कि तब क्यों नहीं लौटाया था कि अब लौटा रहे हैं, तो अपना ही नंग जाहिर करेंगे. कुछ रचनाकार कह रहे हैं कि अपनी असम्मति व्यक्त करने के दूसरे रास्ते भी हैं जिन्हें अपनाना चाहिए. जरूर अपनाना चाहिए लेकिन अपनाइए तो ! अागे बढ़ कर रास्ता तो दिखाइए कि कलम की अाजादी के कारण मिले सम्मान को, कलम पर लग रहे प्रतिबंध के विरोध में वापस करने से भी अच्छा प्रतिरोध इस नहीं, इस तरीके से हो सकता है !अाप वापस करें नहीं अौर दूसरा कुछ करें नहीं, यह साथ तो नहीं चलेगा न ! यह छह इंच की सपाट-सी, बेदम-सी दीखने वाली यह कलम बड़ी कमबख्त चीज है. यह बहुत कम वक्त के लिए स्याही से चलती है. फिर हमारे ललाट से टपकते पसीने अौर हमारी अास्था का लहू पी कर ही चलती है. अब अापकी कलम चलेगी या किसी की धुन पर नाचेगी, अपनी-अपनी कलमों के बारे में इसका फैसला कलमकार ही करेंगे.
यह ऐसा ही एक वक्त है. ( 23.10.2015)
कुमार प्रशांत
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