नाकोहस (National Commission of Hurt Sentiment; a fable for our times)
नाकोहस
पुरुषोत्तम अग्रवाल
सपने में वह गली थी, जहाँ बचपन बीता था। सड़क से शुरु हो कर गली, चंद
कदम चलने के बाद
चौक पर पहुँचती थी, जहाँ मोहल्ले का घूरा था और जहाँ होली जला करती थी। यहाँ से तीन दिशाओं की ओर सँकरी गलियाँ जाती थीं। सामने की ओर जाने वाली गली
में आगे चल कर एक और चौक आता था, जहाँ मंदिर और मजार का वह संयुक्त संस्करण था, जिससे
वह गली अपना नाम अर्जित करती थी। सुकेत ने देखा, उस गली से एक मगरमच्छ आ रहा है, रेंगता हुआ, दुम इत्मीनान से मटकाता हुआ, गली की छाती पर मठलता हुआ, आता है घूरे
वाले चौक तक। अरे, सुकेत पहली बार देखता है कि यहाँ एक हाथी लेटा हुआ है, मगरमच्छ हाथी
की एक टाँग चबाना शुरु कर देता है, हाथी छटपटाता है, लेकिन जैसे जमीन से चिपका दिया गया है, केवल चीख
सकता है, अपनी जगह से हिल नहीं सकता। इसी बीच दूसरी गली से एक और मगरमच्छ आता है, हाथी
की दूसरी टाँग पर शुरु हो जाता है। हाथी की दर्द और दुख से भरी चीखें जारी हैं, वह
शायद वैकुंठवासी नारायण को ही पुकार रहा है, जैसे पुराण-कथा में पुकार रहा था, किंतु
या तो चीखें वैकुंठ तक पहुँच नहीं रहीं, या नारायण को अब फुर्सत नहीं रही।
जिंदगी हस्ब-मामूल चल रही है।वाटरकर साहब काली
टोपी,लाल टाई लगाए साइकिल पर दफ्तर रवाना...त्रिवेदीजी अपनी मोटर-साइकिल पर। सब्जी
वाला ठेला लेकर आया है, उसने हाथी और उसे भंभोड़ते मगरमच्छों से बस जरा सा बचाकर
ठेला लगा दिया है, आवाज लगा रहा है...‘कद्दू ले लो, भिंडी ले लो, लाल-लाल
टमाटर...’ गृहणियाँ ठेले की तरफ बढ़ रही हैं, मगरमच्छ हाथी को चबा रहे हैं....हाथी
की चिंघाड़ें करुण रुदन में बदल रही हैं, धीमी हो रही हैं, जमीन पर चिपकी देह में
जो थोड़ी-बहुत हलचल थी, वह कम से कमतर होती जा रही है...आँखें आसमान बैकुंठ की ओर
तकते तकते अब अपनी जगह से लुढ़कती जा रही
हैं...कहीं नहीं दिख रहे गरुड़ासीन, चतुर्भुज नारायण...सुकेत खुद हाथी की ओर से
प्रार्थना कर रहा है कि गरुड़ासीन नारायण नहीं तो महिषासीन यम ही आ जाएँ...दोनों
में से कोई न हाथी पर कान दे रहा है, और न सुकेत पर...हाथी की चिंघाड़-चीत्कारें
बस शून्य में जा रही हैं, वापस आकर दर्द की लहरों का रूप लेती उसी की देह में
व्याप रही हैं, उन्हें न वैकुंठ लोक के नारायण सुन रहे हैं , ना यमलोक के देवता और
ना भूलोक के नर-नारी...
सपने
के अक्स पसीने की बूंदों में ढलकर जगार तक चले आये थे,स्मृति में बस गये थे।
स्मृति ताकत भी थी, कमजोरी भी। बचपन में उसे पींपनी-फुग्गे वाले के खिलौनों में
सबसे ज्यादा चाव चूड़ियों के टुकड़ों से बनाए गये कैलिडोस्कोप का था। वह न जाने
कितनी-कितनी देर गत्ते के उस छोटे से सिलेंडर को आँख से चिपका कर घुमाता, दूसरे
सिरे पर बनते, पल-पल शक्ल बदलते, रंग-बिरंगे
आकारों को निहारता रहता था। बचपन से इतनी दूर, आज भी मन में एक दूसरे से
जुड़ी-अनजुड़ी हजारों यादें चूड़ियों के उन टुकड़ों जैसी अनगिनत शक्लें बनाती रहती
थीं।फर्क यह था कि गत्ते के कैलिडोस्कोप में चूड़ियों के टुकड़े मनमोहक आकारों में
ढलते थे, यादों के कैलिडोस्कोप में बनने वाले ज्यादातर आकार या तो भरमाते थे, या
डराते थे। मगरमच्छों द्वारा भंभोड़े जा रहे हाथी का अक्स आज भी देह को पसीने से भर देता था।वह नहीं भूल पाया था
कि परंपरा में हाथी शरीर-बल के साथ बुद्धि-बल के लिए भी अभिनंदित प्राणी है। वह
नहीं भूल पाया था, गजोद्धार की, तथा दीगर कथाएँ। यह कथा-स्मृति सपने के हाथी की
बेबसी को, उसकी दुचली-कुचली हालत को, नर- नारायण और यम की बेरुखी को और गाढ़े दुख
में रंग देती थी। हालाँकि, सुकेत जानता था कि हमेशा यादों में डूबे रहना व्यक्ति
और समाज के बचपने का लक्षण है, कहता भी था ‘यार, बहुत ज्यादा अतीत घुसा हुआ है
हमारी चेतना में...वी हैव टू मच ऑफ हिस्ट्री...संतुलन होना चाहिए...’
संतुलन?
इस समय, कुछ लोग वर्तमान को अतीत के हिसाब-किताब बराबर करने वाला अखाड़ा समझ रहे
थे, तो कुछ वर्तमान के जादुई गलीचे पर सवार ऐयाशी
की हवा में उड़ानें भर रहे थे। जिन्दगी की चाल भी बहुत तेज-रफ्तार थी, क्या घर में, क्या सड़क पर, हर
जगह हर आदमी न जाने कहाँ फौरन से पेश्तर पहुँच जाने की जल्दी में था। तेज-रफ्तार
वक्त में सुकेत और उसके जैसे लोग बीते वक्त में कहीं जमे रह गये फॉसिल थे, ऐसे पुरालेख थे, जिन्हें हर कोई कोसता था कि
दफ्तरों में, गलियारों, दुनिया में खामखाह जगह घेरे हुए हैं।
यह
मगरमच्छों द्वारा भंभोड़े जा रहे हाथी की करुण चिंघाड़ के साथ टूटी नींद की आधी रात थी, देह को पसीने से
भिगोती जगार के साथ शुरु हुई आधी रात....
‘चलो’....
अरे,
ये तो वही बलिष्ठ गण हैं, जो कभी मोहल्ले में दिखते हैं, कभी टीवी के परदे पर। कभी
किसी फिल्म-शो में पत्थर फेंकते नजर आते हैं, कभी पार्क में बैठे नौजवान जोड़ों को
सताते...कभी किसी साहित्योत्सव में किसी लेखक के आने की संभावना भर से वहाँ नमाज पढ़ कर अपनी ताकत दिखाते,
कभी किसी पेंटर के देशनिकाले का उत्सव मनाते...कभी लड़कियों को रेस्त्राँ से
मार-पीट कर भगाते, कभी माथे पर सिन्दूर लगा लेने वाली लड़कियों के विरुध्द मुहिम
चलाते, कभी किसी फिल्म पर रोक लगाने को सामाजिक न्याय का प्रमाण बताते, कभी किसी
लेखिका को धर्मगुरुओं के सामने घुटने टेकने का आदेश देकर अपनी धर्मनिरपेक्षता
साबित करते...हर तरफ आहत भावनाओं का बोल-बाला था...
एक
बार खुर्शीद ने कहा भी था, “अमाँ, यह ससुरी धर्मनिरपेक्षता तो अपने देश में आहत
भावनाओं की एंबुलेंस बनती जा रही है...”
“और
अक्ल की बात करने वालों की मुर्दागाड़ी...” रघु ने टुकड़ा जड़ा था। रघु तो अपनेनाम से ही भावनाएं आहत करने का अपराधी
था, क्योंकि “ यह दुष्ट ईसाई होकर भी हिन्दू नाम धारण करता है, सो भी भगवान राम के
पूर्वपुरुष का”। रघु क्या बताता कि उसके ईसाई पिता को हिन्दू परंपराओं की कितनी
भावपूर्ण जानकारी थी, रघु के चरित्र से वे कितने प्रभावित थे, अपने बेटे का नाम
रघु रख कर कितना सुख अनुभव करते थे....बताने से होना भी क्या था?
सुकेत
को याद था कि बचपन के दिनों में उस उनींदे नगर में भी ऐसे नमूने थे, लेकिन
उपेक्षित...आजकल के मुहाविरे में, ‘हाशिए पर’। लोग उनकी नैतिक चिंतावली सुन भी
लेते थे, और हँस कर टाल भी देते थे। लेकिन,टीवी की ब्रेकिंग न्यूज के इन दिनों में
ये सारे देश में ग्राउंड-ब्रेकिंग रफ्तार से बढ़ते ही चले जा रहे थे।टीवी चैनल ऐसे
नमूनों को जन्म देने वाली जच्चाओं की भूमिका निभा रहे थे, और सुधी विमर्शकार दाइयों
की। लेकिन, अपनी जच्चाओं और दाइयों को छोड़ ये नैतिक नौनिहाल मेरे घर में कैसे घुस आए? कौन हैं ये लोग,
गुंडे या यमदूत? ले कहाँ जा रहे हैं? यमलोक?
यमदूत आत्मा को पता नहीं किस वाहन में
ले जाते हैं।सुकेत को तो कार में उन्हीं जानी-पहचानी सड़कों से सशरीर ले जाया रहा
था।बड़े-बड़े होर्डिंगों पर, फ्लाई-ओवरों और अंडर-पासों की दीवारों पर अजीब से
नारे, अजीब से ऐलान चमकते दिख रहे थे। रास्ते में पड़ने वाले अंधेरे टुकड़ों में
भी ये ऐलानफ्लोरसेंट रंगों से लिखे हुए थे—‘नाश हो इतिहास का’, ‘दस्तावेजों को जला दो, मिटा दो’, ‘कला वही जो
दिल बहलाए’, ‘साहित्य वही जो हम लिखवाएँ’...
हर
ऐलान के नीचे एक लाइन ज़रूर लिखी थी, कहीं-कहीं वह लाइन ही मुख्य ऐलान थी—‘ हर सच
बस गप है, सबसे सच्ची हमारी गप है’...यह लाइन हर जगह अंग्रेजी में भी लिखी थी।
आखिर मूल लाइन तो इस वक्त, यहीं क्यों, हर जगह अंग्रेजी से ही आ रही थी, इंग्लैंड
वाली नहीं, अमेरिका वाली अंग्रेजी से—‘ऑल
ट्रूथ इज़ फिक्शन, अवर फिक्शन इज़ दि ट्रूएस्ट वन’... read more: